इस चिट्ठी में मेरी केरल में कोज़ीकोड, पूकोड झील, वायनाड वन्य प्राणीशाला, और एडक्कल गुफाओं की यात्रा का वर्णन है।
होली भाई-चारे एवं समानता का त्योहार है पर उत्तर भारत के बहुत से शहरो में इसका स्वरुप बदल गया हैः यह शोर-शराबे, बत्तमीजी, दूसरों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने का दिन बन गया है। हंसी मज़ाक अच्छा है और जीवन में जरूरी भी, पर लोग यह नहीं समझ पाते या समझना नहीं चाहते कि कुछ लोगों को रगों से एलर्जी हो सकती है तथा रगं, अबीर ऐसे लोगों का पूरा हफ्ता बरबाद कर देते हैं। मुझे भी अबीर और रंगो से एलर्जी है। शायद, यह मुझे अपनी मां से, विरासत में मिला है। सामुहिक मिलन अच्छी बात है पर अपने देश में अलग से मिलने का ऐसा मर्ज़ है कि अक्सर कुछ ज्यादा ही हो जाता है। बहुत से लोग इसी कारण होली में उत्तर भारत से भागते हैं, मै भी उनमे से एक हूं। एक बार केरल जाने का मौका मिला। यह यात्रा संस्मरण उसी के बारे में है।
कालीकट – कोज़ीकोड
कालीकट का नया नाम कोज़ीकोड है। हम हवाई जहाज के द्वारा वहां पहुंचे। प्रकति में सब रगं हैं पर उसके सबसे प्यारे रगं हैं: हरा तथा नीला। इसी लिये पेड़ों को उसने हरा तथा आकाश एवं समुद्र को नीला रगं दिया। केरल में पहंचते ही, सब जगह पेड़ पौध हरे रगं में दिखे, उसके पीछे नीला आसमान और नीला समुद्र। दृश्य देख कर ‘बूंद जो बन गयी मोती’ फिल्म में, मुकेश का गाया, यह गाना याद आया,
‘हरी भरी वसुन्धरा,
पर नीला, नीला यह गगन।
दिशायें देखो रगं भरी
चमक रही उमगं भरी।
वह कौन चित्रकार है
वह कौऽऽऽन चित्रकार है।’
रगों के इस छटा को देखते हुए ही शायद केरल के टूरिस्ट विभाग का मोटो है: Kerala – God’s own country यानी भगवान का घर। मुझे प्रकृति शब्द ज्यादा पसन्द है। इसीलिये यह शीर्षक।
कप्पड़ समुद्र-तट
शाम के समय, हम कप्पड़ समुद्र तट गये। वास्को डि-गामा, भारत में सबसे पहले कप्पड़ समुद्र तट पर उतरा था इस लिये हम लोग इसे देखने गये।
वास्को डि गामा – कप्पड़ समुद्र तट पर
समुद्र तट पर चट्टाने थीं जिस पर समुद्र की लहरें खेल रही थीं। समुद्र कुछ अशान्त सा लगा पर बीच एकदम साफ थी भीड़ नहीं थी। थोड़ी देर में सूरज डूबने लगा उसकी लालिमा समुद्र पर फैल गयी दूसरी तरफ चन्द्रमा उगने लगा दृश्य सुन्दर था।
वास्को डि गामा का भारत आने का रास्ता
एक ठेलेवाला चाय बेच रहा था। वह चाय, चाय की पत्ती से नही, पर चाय के बुरादे से बना रहा था, थोड़ी अजीब सी लगी। कुछ और लोग भी चाय पी रहे थे मैने उनसे बात करने के लिये कहा,
‘वास्को डिगामा यहां उतरा था। यह ऐतिहासिक समुद्र तट है। यहां केवल समुद्र तट के पहले एक टूटे-फूटे पत्थर पर यह लिखा है। यह तो सैलानी स्थल है कुछ अच्छा बना कर लिखना चाहिये।’
उसने कहा,
‘वास्को डि-गामा बहुत क्रूर व्यक्ती था उसके बारे में क्यों लिखा जाय।’
मैने बहस को आगे ले जाते हुए कहा,
‘फिर भी यह इतिहास की बात है कि योरप से सबसे पहिले उसी ने भारत का रास्ता खोजा था। इसलिये इस जगह को ऐतिहासिक जगह के रूप में देखें और यदी वह क्रूर था तो उस बात को भी लिखें।’
उन्होने गुस्से से मेरी तरफ देखते हुए कहा,
‘हम लोग कुछ नहीं सुनना चाहते यदि वास्को डि-गामा कि यहां मूर्ती बनायी जायगी या कुछ लिखा जायगा तो हम उसे तोड़ देंगे नष्ट कर देगें।’
मुज्ञे लगा कि उसका पारा गरम हो रहा है, इसके पहिले कोई अप्रिय घटना हो जाय मैंने विषय बदलना ही ठीक समझा। बी.बी.सी. की वेब-साईट पर वास्को डि-गामा का इतिहास देखें तो इन लोगों का गुस्सा समझा जा सकता है।
समुद्र पर दूर रोशनी दिखायी पड़ रही थी। मैने पूछा यह रोशनी कैसे है। उसने बताया,
‘यह मछुहारों के नाव की रोशनी है जो बैटरी से जल रही है। इनके पास मोबाईल फोन भी रहता है और वे मछली पकड़ने के बाद मोबाईल फोन से व्यापारियों से बात करते रहते हैं जो सबसे अच्छा पैसा देने की बात करता है, वहीं सौदा पक्का कर वहीं पर वापस उतर कर बेचते हैं।’
मोबाइल क्रान्ती का एक और फायदा। रात हो रही थी हम लोग वापस लौट आये।
पूकोड झील
हम अगले दिन सुबह, वायनाड, वन्य प्राणीशाला (Wild Life Sanctuary) देखने के लिये निकल पड़े। केरल की सड़कें बहुत अच्छी हैं। एक बार ससंद में सड़कों के बारे में चर्चा हो रही थी तो किसी ने सड़कों को ओमपुरी तथा हेम मालिनी के गालों से उनकी तुलना की। बिहार की सड़कें ओमपुरी के गालों जैसी बतायी गयीं: फिर तो केरल की सड़कें हेमा मालिनी के गालों जैसी हैं – एकदम चिकनी। अब्दुल हमारे टैक्सी के चालक थे बस पलक झपकते वह हवाई जहाज की रफतार पकड़ते थे। मुझे उन्हे रास्ते भर बताना पड़ा,
‘मै अल्लाह मिंया से प्रेम करता हूं पर इतना भी नही कि मैं, उनसे मिलने, कुछ साल पहिले ही पहुंच जाऊं।’
रास्ते में पूकोड झील पड़ी। यह एक सैर सपाटे का स्थल है: शान्त, स्वच्छ, वा सुन्दर। पिकनिक की जगह पर इतनी सफाई कम देखने को मिलती हैः मन प्रसन्न हो गया। थोड़ी धूप हो गयी थी इसलिये बोटिंग न करके हम लोगों ने उसका पैदल चक्कर लगाना ठीक समझा। थोड़ी देर बद लगा कि कुछ बच्चे बोट पर गा रहें हैं। गाना लय में तथा अच्छा लग रहा था पर समझ में नहीं आ रहा था चक्कर के बाद हम इन बच्चों और उनके टीचरों से मिले। मैने उनके स्कूल तथा गाने के बारे में बात की।
पुकोड झील
यह बच्चे पहली से लेकर चौथी क्लास में परुमदचेरी मोपला लोवर प्राइमरी स्कूल नादापुर कालीकट में पड़ते थे। स्कूल के टीचरों ने मोपला का अर्थ मुसलिम बताया गया। मेरे पूछने पर उन्होने कहा,
‘यह इस लिये रखा गया है कि वह मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में है। इसके अलावा इसका कोई और अर्थ नहीं है। क्योकि न तो उस स्कूल के मैनेजर मुसलमान हैं, न ही यह स्कूल केवल मुसलमानो के लिये है इस स्कूल में सब धर्म के बच्चे पड़ते हैं तथा सब धर्म के टीचर हैं।’
कुजं अबदुल्ला, इस स्कूल में अरेबिक पढ़ाते हैं। उन्होने बताया कि कुछ स्कूलों में उर्दू तथा कुछ में सस्कृंत पड़ायी जाती है। वही बच्चों के साथ गीत गा रहे थे। उन्होने वह गाना फिर से सुनाया और उसका मतलब भी बताया,
‘यह गीत मछुवारे जब मछली पकड़ने जाते हैं तो गाते हैं। इसमें वे, मुथपन्न, जिसे वे भगवान मानते हैं की स्तुति की गयी है। वे उससे प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हे स्वस्थ रखे, सलामत रखे, और उन्हे समृधि दे।’
मेरा पूकोड झील से बिलकुल जाने का मन नही था पर शाम के पहिले वायनाड वाईल्ड लाईफ सैक्चुंरी पहुचना था। इसलिये मन मार कर वहां से चलना पड़ा। मन में यही इच्छा थी कि यदि सारे सैलानी स्थल इतने साफ हो जायें तो क्या बात है।
एग्रीक्लचर रिर्सच संस्थान
वायनाड वन्य प्राणीशाला, वायनाड जिले के, सुलतान बत्तरी तहसील में है। हम लोगों ने अपना डेरा वहीं जमाया। जगंल जाने में कुछ समय था इसलिये एग्रीक्लचर रिर्सच संस्थान को देखने के लिये चले गये। वहां पर हमें, एक प्रोफेसर साहब ने घुमाया। यहां पर तरह तरह के फल, मसाले (लौगं, इलायची इत्यादि) के पेड़ लगे थे। वे उनको बेचते भी थे – पिछले साल उनकी सेल ६५ लाख थी। मैंने कहा,
‘तब तो यह जगह आत्म निर्भर होगी। ‘
उन्होने कहा कि नहीं। मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। वे बोले,
‘केरल में लोग कम काम करते हैं। दो लोग भी इकठ्ठा होगें तो अपनी यूनियन बना लेगें।’
केरल में हिन्दू, मुसल्मान, तथा इसाई तीनो की संख्या लगभग बराबर है। मैने पूछा,
‘क्या भगवानों की भी यूनियन है।’
वे हल्के से मुस्करा कर बोले,
‘शायद।’
एग्रीक्लचर रिर्सच समस्थान एक दिन आत्म निर्भर बने; हमारी Bio-diversity को बनाये रखने में मददगार साबित हो; हमारे देश की bio-piracy को रोकने सहायक बने – ऐसी कामना करते हुए हम ने वहां से विदा ली।
जगंल – मुतंगा रेजं
केरल, कर्नाटक, तथा तामिलनाडू की सीमायें जहां मिलती हैं वह जगंल है। जो हिस्सा केरल में है वह वायनाड वन्य प्राणीशाला कहलाता है। जो हिस्सा कर्नाटक में है वह बन्दीपुर राष्ट्रीय वन उद्यान कहलाता है। जो हिस्सा तामिलनाडू में है वह मुदुमलाई राष्ट्रीय वन उद्यान कहलाता है। यानी, यह तीनो एक ही जगंल के हिस्से हैं। वायनाड वन्य प्राणीशाला तथा मुदुमलाई राष्ट्रीय वन उद्यान हाथियों के लिये सुरक्षित क्षेत्र हैं। बन्दीपुर राष्ट्रीय वन उद्यान टाईगर के लिये सुरक्षित क्षेत्र है।
जगंल या तो सुबह देखने जाया जाता है या शाम को। शाम होने वाली थी और हम लोग वायनाड वन्य प्राणीशाला – मुतंगा रेजं देखने निकल पड़े। मैं मध्य-प्रदेश के लगभग सभी जगंलो में गया हूं। मुझे यह जगंल, मध्य-प्रदेश के जगंलो से कम घना लगा। हिरण, चीतल, साम्भर के कुछ झुन्ड दिखायी पड़े। कुछ जगंली भैसें (Bison) भी दिखायी पड़े – पर हाथी का कोई झुन्ड नहीं दिखायी पड़ा। एक जगह घास ऊचीं ऊचीं थी वहां पर हाथी की चिंघाड़ सुनायी पड़ी; वहां देखने पर सूंड़ फिर हाथी का सिर दिखायी पड़ा। हम लोग जीप के ऊपर चढ़ कर देखने लगे। थोड़ी देर बाद वह सूड़ हम लोगों की तरफ आने लगी। हमारा एक साथी चिल्लाया,
‘भागो’
हम सब गाड़ी पर तेज़ी से भाग कर बैठे और वहां से रफू-चक्कर। रात को जब हम जब अपने कमरे में आये तो बहुत थके हुऐ थे, पता ही नही चला कि कब निद्रा देवी की गोद में चले गये।
एडक्कल गुफायें
वायनाड जिले के दक्षिण-पुर्व हिस्से में पहाड़ी है, देखने में यह एक लेटी हुई महिला लगती है: बायीं तरफ उसके पैर हैं तथा दायीं तरफ सिर। हिन्दू पुणान के अनुसार भगवान राम ने ताड़का का वध किया था और यह ताड़का ही है जो गिरी पड़ी है। मुझे तो वह कोई दानवी नहीं लगी, दृश्य इतना सुन्दर है कि मुझे वह एक लेटी हुई सुन्दरी लगी। इसी सुन्दरी के वक्ष-स्थल के नीचे है एडक्कल गुफायें, जहां हम तीसरे दिन सुबह पहुंचे।
एडक्कल गुफाओं से बाहर का दृश्य
एडक्कल मलयालम का शब्द है। इसका मतलब होता है चट्टान, चट्टानों के बीच में। यह दो गुफायें हैं जो कि ऊपर की तरफ से एक चट्टान से बन्द है। यह कोई तीस हज्जार साल पहिले भूकम्प के कारण बनी बतायी जाती हैं। कुछ दूर आप जीप से जा सकते हैं, फिर कुछ ऊपर सीड़ियों से। तब टिकट घर पर पंहुचिये, वहां से टिकट लेकर पहले पत्थर, फिर लोहे की सीड़ियां चढ़ कर गुफाओं में जान होता है।
एडक्कल गुफाओं में लेख
पहली गुफा की दीवालों पर कुछ नही है पर दूसरी बहुत कुछ खोद कर लिखा है। कुछ तस्वीरें हैं जिनकी अपनी कथा है; कुछ पुरानी द्राविदियन भाषा में लिखा है,
‘यहां वह शूरवीर आया था जिसने हजार शेर मारे हैं’
यह गुफायें करीब १२०० मीटर की ऊचांई पर हैं। पहाड़ी की चोटी इन गुफाओं से भी ३०० मीटर ऊपर है। यदि आप पहाड़ी की चोटी पर चढ़ना चाहते हैं तो गुफाओं से उपर चढना पड़ेगा; कुछ दूर रस्सी के सहारे, कुछ दूर पहाड़ी पर। यह जोश और जोखिम का काम है। कुछ लड़के केरल के पौलीटेक्नीक से आये थे, वे चढ रहे थे, मुझे भी जोश आ गया, मैं भी चढने लगा।
लड़को ने अभी जीवन के एक चौथाई बसन्त देखे थे और मैं जीवन के तीन चौथायी से ज्यादा बसन्त देख चुका हूं। २०० मीटर चढने के बाद मुझे लगा शायद ऊपर तक चढ़ तो जाऊंगा पर नीचे न उतर पाउगां। हो सकता है कि कहीं एकदम ऊपर न चला जाऊं। कुछ लड़के मुझसे नीचे से ही वापस चले गये, कुछ मुझसे ऊपर तक भी गये, दो ने कहा कि वे चोटी तक गये थे। नीचे गुफा पर कुछ लड़कियां पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने को आतुर दिखायी पड़ी। मैने उन लड़कियों के जोश की सराहना की और कहा,
‘यदि तुमसे कोई पहाड़ की चोटी पर चढ़ सका तो उसको मेरी तरफ से एक ईनाम।’
अभी तक किसी ने इनाम लेने का दावा नहीं किया।
हेरिटेज़ म्यूज़ियम
एडक्कल गुफायें से हम लोग हेरिटेज़ म्यूजियम आये। वहां के मैनेजर ने बतया कि यह ज़िले स्तर का म्यूज़ियम है तथा अपनी तरह का हिन्दुस्तान में पहला। इस म्यूज़ियम में वायनाड ज़िले पायी जाने वाली मूर्तियां तथा जन जाती लोगों का समान है। यहां से लेटी हुई सुन्दरी एकदम साफ दिखायी पड़ती है। यदी यहां पर एक दूरबीन होती तो एडक्कल गुफायें को अच्छी तरह से देखा जा सकता था। यदि कभी आप अब वहां पर जायें तो हो सकता है कि आपको वहां एक दूरबीन मिले। कम से कम वहां के मैनेजर ने तो यही वायदा किया है।
जगंल – कुलार्च रेजं
हम लोग शाम को जगंल वायनाड वन्य प्राणीशाला की कुलार्च रेजं से गये। इसके बाद जगंल के अन्दर- अन्दर बन्दीपुर राष्ट्रीय वन उद्यान गये। जहां पर एक बहुत बड़ा जलाशय है। यहां पर जानवर पानी पीने आते हैं। हम लोगों ने यहां पर हाथियों तथा जगंली सुअरों के झुन्डों को देखा।
रात हो चली थी हम लोग वापस चल दिये। रास्ते में एक गार्ड-पोस्ट पर एक शोधकर्ता से मुलाकात हुई। वह टाईगरों की सख्यां के बारे में शोध कर रहे था। उसने बताया,
‘टाईगरों की सख्यां के बारे में बताना कठिन कार्य है पर तीन तरीकों से जगंलो में टाईगरों की सख्यां के सापेक्षिक घनत्व के बारे में शोध किया जाता है।
- रोज़ जगंल के अलग अलग हिस्से पर एक निश्चित दूरी चल कर टाईगरों के पजों के निशान देखे जाते हैं।
- रोज जगंल के अलग-अलग हिस्से पर एक निश्चित दूरी चल कर, टाईगरों के मल के सैम्पल लेकर उसकी डी. एन. ए. (DNA) टेस्टिंग की जाती है पर अभी यह तकनीक अपने देश में विकसित नहीं है।
- जगंल के अलग अलग हिस्से पर एक निश्चित दूरी पर दो तरफ कैमरे लगायें जाते हैं तथा जब कोई जानवर इनके बीच आता है तो उसकी दोनो तरफ से फोटो ले ली जाती है। हर टाईगर की धारियां अलग-अलग होती हैं इससे टाईगरों की पहचान की जा सकती है। यह कैमरे केवल रात मे ही चलते क्योंकि टाईगर रात मे निकलता है।’
वह तीसरे प्रकार से टाईगरों की संख्या के बारे में पता कर रहा था।शोधकर्ता के अनुसार बन्दीपुर राष्ट्रीय वन उद्यान में टाईगरों की सख्यां सबसे ज्यादा है। यह लगभग १४ टाईगर प्रति १०० वर्ग किलोमीतर है। मैं बान्धवगड़ वन्य प्राणीशाला (रीवां, मध्य प्रदेश) में टाईगरों की सख्यां सबसे ज्यादा समझ्ता था। उसके मुताबिक यह केवल ११ टाईगर प्रति १०० वर्ग किलोमीटर है। मैने कहा,
‘यदी तुम सही बता रहे हो तो ऐसा क्यों है कि लोगों को क्यों बान्धवगड़ वन्य प्राणीशाला में हमेशा टाईगर दिख जाता है पर बन्दीपुर राष्ट्रीय वन उद्यान में नहीं।’
उसने बताया,
‘बान्धवगड़ वन्य प्राणीशाला एक सैलानी स्थल के रूप में विकसित हो चुका है और वहां के टाईगरों को जीप का डर समाप्त हो चुका है इसलिये वह सामने आ जाते हैं पर बन्दीपुर राष्ट्रीय वन उद्यान में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है।’
हम लोग वापस चल दिये क्योंकि अगले दिन सुबह हमें वापस घर के लिये प्रस्थान करना था।
हम लोग वायनाड मे दो दिन थे। यह कम थे वहां कुछ झरने, द्वीप्समूह, तथा डैम है जो कि समय की कमी रहते हम लोग नही देख पाये। हमारी केरल की यत्रा सुखद थी पर एक बात में कहना चाहूगां, मैंने कई जगह छोटे तथा बड़े धार्मिक स्थल बने या बनते देखे, शायद जरूरत से ज्यादा। स्कूल, अस्पताल, कारखाने एक तरह के भाव मन में लाते हैं तथा धार्मिक स्थल कुछ अलग तरह के भाव मन में लाते हैं। कहीं यह किसी तनाव, या अशान्ति का सूचक तो नहीं। यदी ऊपर कोई है तो वह चाहे ख़ुदा हो, या ईश्वर हो, या भगवान हो। न ही वह अपने वतन, देश, घर को, पर हमारे देश भारतवर्ष तथा इस विश्व को रहने लायक बना कर रखे। ऐसी कामना, ऐसी इच्छा, ऐसा विश्वास लिये हम घर वापस लौटे।
मेरा कैमरा खराब हो गया था। इसलिये इस लेख में एक भी चित्र मेरे खींचे हुए नहीं हैं। यह सारे चित्र विकिपीडिया से हैं और ग्नू मुक्त प्रलेखन अनुमति पत्र की शर्तों के अन्दर हैं।
मैंने तीन दिन केरल में बिताये थे। उन दिनो का विवरण अपने उन्मुक्त चिठ्ठे पर तीन कड़ियों में प्रकाशित किया था। यह चिठ्ठी उन तीनो कड़ियों को संग्रहीत कर के बनाया गया है। यदि आप इसे कड़ियों में पढ़ना चाहें तो नीचे लिखे लिंक पर चटका लगा के पढ़ सकते हैं।
तीन दिन:
ख़ुदा के वत़न में – पहला दिन।। ईश्वर के देश में – दूसरा दिन।। भगवान के घर में – तीसरा दिन।।
यात्रा वृत्तांत के साथ ही स्थलों से जुड़ी जानकारी रोचक लगी! धन्यवाद!
हमें यात्रा विवरण पढना बहुत अच्छा लगता है। आपका विवरण खासा जानकारीपरक है। केरल घूमने के बाद तो बस सच केवल हरा रंग ही याद रह जाता है।
केरल में दो वर्ष पहले हम भी घूम कर आये हैं पर आप के वर्णन अलग स्थलों के हैं । बहुत ही रोचक जानकारी । इससे पहले मोपलाओं के बारे में सुब्रमनियम जी के ब्लॉग पर पढा था । केरल पर प्रकृति की विशेष कृपा है ।
1 year pahle ham log bhi ghumne gye the naturality ke sath hi wha ki safai logo ka behav dil ko chu gya back water mai ghumte hue to kisi aur hi duniya mai pahunch gye