यह चिट्ठी रिश्तों के बारे में है, उनसे निकलती खुशबू, जीवन के भावात्मक पहलू दर्द, प्रेम, मित्रता के बारे में है।
यह मेरे ‘उन्मुक्त‘ चिट्ठे पर कई कड़ियों में प्रकाशित हो चुकी है। इसका कुछ भाग मेरी पत्नी शुभा ने अपने चिट्ठे ‘मुन्ने के बापू‘ पर लिखा है। उसके कहने पर, उन चिट्ठियों को भी यहां जोड़ रहा हूं। यह लेख इन सारी कड़ियों को सम्पादित कर, प्रकाशित किया जा रहा हूं। यदि आप इसे कड़ियों में पढ़ना चाहते हैं तो नीचे चटका लगा कर पढ़ सकते हैं।
भूमिका।। सबसे प्रिय गीत, प्रिय क्षण – दर्द की यादें हैं। sweetest songs are those that tell of saddest thought।। कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन।। प्यार में अफसोस नहीं ।। रोमन हॉलीडे – पत्रकारिता।। अनन्त प्रेम।। अम्मां – बचपन की यादों में।। यहां सेक्स पर बात करना वर्जित है।। करो वही, जिस पर विश्वास हो।। जो करना है वह अपने बल बूते पर करो।। अम्मां – अन्तिम समय पर।। मैं तुमसे प्यार करता हूं कहने के एक तरीका यह भी।। पुराने रिश्तों में नया-पन, नये रिश्तें बनाने से बेहतर है।। प्रेम तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो।। निष्कर्ष – प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।। पुनः लेख – जीना इसी का नाम है।।
सबसे प्रिय गीत, प्रिय क्षण – दर्द की यादें हैं
रिश्ते अक्सर दर्द दे जाते हैं। क्या इनमें दर्द ही होता है? क्या यही है रिश्तों में रमती खुशबू? क्या यही है रिश्तों का अंजाम। क्या यही है जीवन का निचोड़, या फिर कुछ और।
इसमें शक नहीं कि दर्द और मिठास में अनोखा रिश्ता है और इसे सबसे अच्छी तरह से व्यक्त करती है यह पंक्ति,
‘Our sweetest songs are those that tell of saddest thought’
हमारे सबसे प्रिय गीत, प्रिय क्षण वह हैं जो सबसे दर्द भरे हैं।
यह पंक्तियां अंग्रेजी कवि शेली (Percy Bysshe Shelley) कि कविता ‘To a Skylark‘ से ली गयी हैं।
शैली का चित्र विकिपीडिया से
अंग्रेजी साहित्य में पांच प्रसिद्घ रूमानी कवि हुए हैं, पर्सी बिश शैली उनमें से एक हैं, बाकी चार हैं – वर्डस्वर्थ (William Wordsworth), कोलरिज (Samuel Taylor Coleridge), बाइरन (Lord Byron) और कीटस् (John Keats) हैं।
शैली एक उपदेशक थे और अपनी कविता के द्वारा समाज सुधार करना चाहते थे। उनकी मृत्यु ३० साल की कम उम्र में हो गयी इसलिए कहना मुश्किल है कि यदि वे जीवित रहते तो यह सम्भव होता या नहीं। यह भी अपने में एक प्रश्न है कि कविता के द्वारा ऐसा कार्य संभव है या नहीं। मेरे विचार ऐसा कार्य केवल कर्मों से सम्भव है न कि कविता से।
शैली का जन्म ४ अगस्त १७९२ में हुआ था। इन्होंने अपना स्कूली जीवन ईटन कॉलेज (Eton College) में व्यतीत किया और उच्च शिक्षा के लिए आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। १९११ में, उन्होंने ‘The necessity of Atheism’ नाम से एक पर्चा प्रकाशित किया जिसके कारण उन्हें आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से निष्कासित किये जाने के बाद ही, उन्नीस साल की उम्र में शैली का प्रेम १६ साल की हैरियट बेस्टब्रुक (Hariatte Bestbrook) से हुआ जिसके साथ उन्होंने शादी रचायी। शैली भावनात्मक व्यक्ति थे और बहुत जल्द ही उनका प्रेम एक दूसरी १६ साल की लड़की मैरी गाडविन (Mary Shelley) के साथ चलने लगा; वे उसके साथ १८१४ में यूरोप भाग गये। १८१६ में जब वे वापस इंगलैंड आये तो शैली की पहली पत्नी हैरियट की मृत्यु, दुर्घटना के कारण हो गयी। शैली ने मैरी से शादी कर ली। वे पुन: १८१८ में यूरोप गये वहां बाइरन के साथ रहे और इन दोनों के कहने पर मैरी ने फ्रैंकेस्टाइन (Frankenstein: or, The Modern Prometheus) नामक उपन्यास १८१८ में लिखा यह उपन्यास विज्ञान की कल्पित कहानियों में सबसे ज्यादा जाना-माना उपन्यास है। ८ जुलाई १९२२ में जब शैली ३० साल के भी नहीं हुये थे, इटली के पास समुद्र में, नाव डूब जाने के कारण उनकी मृत्यु हो गयी।
शैली और मैरी दोनों ही शाकाहारी होने की वकालत करते थे और उन्होंने इस बारे में कई लेख भी लिखे जिसमें कि प्रमुख है, ‘A Vindication of Natural Diet’ और ‘On the Vegetable System of Diet’.
शैली की कवितायें अंग्रेजी साहित्य की धरोहर है इनकी एक कविता ‘To a Skylark‘ है। स्काईलार्क एक छोटी सी चिड़िया है जिसकी आवाज मधुर होती है। यह ऊंचे आकाश में उड़ना पसन्द करती है। यदि आप इस चिड़िया की आवाज सुनना चाहें या फिर इसके बारे में जानना चाहें तो बीबीसी रडियो पर यहां सुन सकते हैं।
यह चित्र वीकिपीडिया से
‘To a Skylark’ कविता के पहले भाग में, शैली इस चिड़िया के बारे में बात करते हैं और दूसरे भाग में, उससे प्रेरित होकर अपनी भावनायें बताते हैं। उपर उद्धरित पंक्ति, जिस छन्द से ली गयी हैं वह इस प्रकार है,
‘We look before and after,
And pine for what is not:
Our sincerest laughter
With some pain is fraught;
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.’
यह छन्द बताता है कि हम, भावनात्मक स्तर पर, सबसे ज्यादा बीते हुऐ पलों से जुड़े होते हैं। यह पल ही हमारे लिये बहुमूल्य हैं। वे ही हमारे जीवन के सबसे सुनहरे पल हैं। वे बीते हुऐ हैं – वापस नहीं आ सकते। इसी लिये उनके लिये हम सबसे ज्यादा दुखी होते हैं। यही कारण है दर्द और मिठास के अनोखे रिश्ते का।
शैली की कविता की उद्धरित पंक्ति – कुछ उदास, कुछ मायूस, कुछ निराश, कुछ नकारात्मक सी है। यह तो बन्धन के कारण ही होता है – पर प्यार तो अपने हर रंग में, बन्धन रहित है। फिर यह क्यों? प्यार है क्या? क्या यह एक खामोशी है, या खामोशी के रुके हुऐ अफसाने, या केवल एक एहसास, या फिर कुछ और?
प्यार में अफसोस नहीं
एक अभिनेता की पत्नी की तबियत ठीक नहीं रहती थी। पत्नी के डाक्टर ने अभिनेता से मिलने की इच्छा जाहिर की। जब अभिनेता, डाक्टर से मिला तो उसने बताया कि उसकी पत्नी को कैंसर है और छ: महीने के अन्दर ही उसकी मृत्यु हो जायेगी। अभिनेता ने अपने काम से छुट्टी ली और वह अपनी पत्नी से यह बिना बताये कि उसकी मृत्यु होने वाली है, उन जगहों पर ले गया जहाँ उसकी पत्नी हमेशा जाना चाहती थी। उसकी पत्नी की मृत्यु ६ महीने के अन्दर ही हो गयी। इसके बाद यह सवाल उठा कि कौन अच्छा अभिनेता था: वह पति जिसने अपनी पत्नी के साथ आखिरी छ: महीने उस की पसन्द की जगह, उसे बिना यह बताये गुजारे कि उसकी ज्लद ही मृत्यु होने वाली है या फिर वह पत्नी, जो यह जानते हुए कि वह छ: महीने बाद नहीं रहेगी सारी जगह गयी और अपने पति को नहीं मालुम होने दिया कि उसे अपनी मृत्यु के बारे में मालुम है। यह मेरी प्रिय प्रेम कहानियों में से एक है।
इस कहानी को एक दूसरे रूप में, एरिक सीगल (Erich Segal) ने प्रेम कहानी (Love Story) नामक पुस्तक में लिखा है। यह पुस्तक १९७० में छपी थी। यह ऑलिवर बैरेट और जेनी कैविलरी की प्रेम कहानी है। ऑलिवर अमीर है, बेहतरीन खिलाड़ी है, और हावर्ड में पढ़ता है। जैनी गरीब है, संगीत प्रेमी है, और रेडक्लिफ में पढ़ती थी।
यह कहानी कुछ इस तरह से शुरू होती है।
‘What can you say about a twenty-five-year-old girl who died ?
That she was beautiful. And brilliant. That she loved Mozart and Bach. And the Beatles. And me. Once, when she specifically lumped me with those musical types, I asked her what the order was, and she replied, smiling, “Alphabetical.” At the time I smiled too. But now I sit and wonder whether she was listing me by my first name– in which case I would trail Mozart – or by my last name, in which case I would edge in there between Bach and the Beatles. Either way I don’t come first, which for some stupid reason bothers hell out of me, having grown up with the notion that I always had to be number one. Family heritage, don’t you know?’
जेनी की भी मृत्यु ६ महीने के अन्दर कैंसर से हो जाती है। इस पुस्तक का अन्त इस प्रकार होता है कि ऑलिवर का पिता जब अस्पताल में पहुंचता है तो जेनी की मृत्यु हो चुकी होती है।
“Oliver,” said my father urgently, “I want to help.” “Jenny’s dead,” I told him. “I’m sorry,” I told him. “I’m sorry,” he said in a stunned whisper.
Not knowing why, I repeated what I had long ago learned from the beautiful girl now dead.
“Love means not ever having to say you’re sorry.”
And then I did what I had never done in his presence, much less in his arms. I cried.
इस कहानी के दूसरी अन्तिम पंक्ति है,
‘Love means not ever having to say you’re sorry.’
प्यार में कभी अफसोस करना नहीं होता।
यह पंक्ति प्यार का एक अर्थ बताती है और प्यार के संदर्भ में, सबसे ज्यादा उद्धरित पंक्ति है। इस कहानी पर, इसी नाम से एक पिक्चर भी बनी है जिसे ऑर्थर हिलर ने निर्देशित किया है और मुख्य भूमिका रायन ओ’नील एवं एली मैक्ग्रॉ ने निभायी है। यह पंक्ति पिक्चरों के डायलॉगो में, दस सबसे लोकप्रिय डायलॉग में से एक है।
यह पुस्तक उस समय प्रकाशित हुई जब मैं विश्वविद्यालय में पढ़ता था। विश्वविद्यालय के जीवन में लड़कियां भी साथ पढ़ती थीं। वह उम्र ही अलग थी, वह समय भी अलग था। किशोरावस्था में पैर रखते समय, लड़कियों का साथ पढ़ना, अलग अनुभूति ही था।
सीगल की लिखी पुस्तक ‘प्रेम कहानी’ और उस पर बनी फिल्म मुझे बहुत पसन्द आयी। यह पुस्तक पढ़ने और पिक्चर देखने योग्य है। मैंने यह पुस्तक भी बहुतों को उपहार में दी। इस चिट्ठी को लिखने से पहले मैंने इसे फिर पढ़ा। मुझे यह उतनी ही अच्छी लगी जितनी कि ३५ साल पहले लगी थी। यदि आपने नहीं पढ़ी हो तो जरूर पढ़ कर देखिये।
लोग कहते हैं कि खून का रिश्ता ही सच्चा रिश्ता होता है पर यह सच नहीं। मित्रता का रिश्ता अक्सर उससे ज्यादा मजबूत होता है। आइये बात करते हैं एक और रूमानी फिल्म की और उसके कलाकारों के बीच मित्रता के रिश्ते की।
रोमन हॉलीडे
मैंने बचपन में एक अंग्रेजी की रुमानी फिल्म देखी थी। वह फिल्म, एक पत्रकार और एक राजकुमारी की प्रेम कहानी है। इस फिल्म ने, रुमानी फिल्मों में नये आयाम स्थापित किये। यह पत्रकारिता की मर्यादाओं के भी आयाम स्थापित करती है। यह फिल्म उन कलाकारो के द्वारा अभनीत की गयी है जो कि न केवल अंग्रेजी फिल्मों में बेहतरीन कलाकार हो कर उभरे पर जिनहोंने अपने वास्तविक जीवन में भी मित्रता, सम्मान का एक अनोखा रिश्ता कायम किया। जी हां, मैं बात कर रहा हूं ‘रोमन हॉलीडे’ (Roman Holiday) की।
कहा जाता है कि यह फिल्म, राजकुमारी मार्ग्रेट के रोम यात्रा में घटी घटनाओं से प्रेरित है। इस कहानी में एक देश की राजकुमारी रोम जाती है। उसे वहाँ अपने देश के प्रतिनिधि की तरह बर्ताव करना है। वहाँ वह अपने देश के राजदूत के साथ टिकती है। उसे राजकुमारी की तरह बर्ताव करना बहुत मुश्किल लगता है वह इस तरह के जीवन से ऊब चुकी है और साधारण व्यक्ति की तरह जीना चाहती है। इस कारण, वह उन्मादी (hysterial) हो जाती है तब डाक्टर उसे नींद का इंजेक्शन लगा देता है। इसके पहले वह इंजेक्शन कारगर हो, वह खिड़की से निकल कर, भाग जाती है। सड़क पर, उसकी मुलाकात एक अमेरिकी पत्रकार से होती है। राजकुमारी, इंजेक्शन के कारण, रास्ते में ही सोने लगती है। इस पर पत्रकार, राजकुमारी को अपने घर ले जाता है।
अगले दिन उस राजकुमारी को पत्रकार सम्मेलन में भाग लेना था जिसमें इस पत्रकार को भी जाना था। उसमें जाने के लिये जब वह दफ्तर पहुँचता है तो उसका सम्पादक बताता है कि राजकुमारी की बीमारी के कारण पत्रकार सम्मेलन स्थगित कर दिया गया है। सम्पादक, पत्रकार को राजकुमारी का चित्र दिखाता है तब उसे पता चलता है कि राजकुमारी वही लड़की है जो उसके घर में है। वह सम्पादक से पूछता है कि यदि वह राजकुमारी की कुछ खास चित्र उसे दे दे तो उसे क्या मिलेगा। संपादक उसे बहुत पैसा देने की बात कहता है। वह वापस अपने घर आता है और अपने एक मित्र को लेकर राजकुमारी के साथ घूमने जाता है। वे लोग साधारण व्यक्ति की तरह सैर सपाटा करते हैं और मौज मस्ती करते हैं।
पत्रकार के मित्र के पास एक लाइटर है जो कि एक कैमरा है। उससे वह राजकुमारी की फोटो लेता रहता है। वे लोग रात को समुद्र तट पर पार्टी में जाते है। यहां पर राजकुमारी के देश की खुफिया पुलिस, जो उसे ढूढ़ रही होती है, पहचान लेती है और उसे वापस ले जाना चाहती है। पत्रकार और राजकुमारी, वहां से भाग जाते हैं। जब राजकुमारी वापस लौट रही होती है तो उसे लगता है कि उसका अपने देश के प्रति भी कर्तव्य है और उसे वापस जाना चाहिए। वह वापस चली जाती है।
अगले दिन, राजकुमारी पत्रकार सम्मेलन को सम्बोधित करती है जिसमें वह उनके जवाब भी देती है। यह अमेरिकी पत्रकार और उसका मित्र भी उस प्रेस कान्फ्रेंस में होते हैं। उसका मित्र, राजकुमारी का चित्र, उसी लाइटर से लेता है तब राजकुमारी को पता चलता है कि यह लोग पिछले दिन भी उसकी फोटो ले रहे थे।
प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान, राजकुमारी से सवाल पूछा जाता है,
‘आप देशों की दोस्ती के बारे में क्या सोचती हैं?’
राजकुमारी जवाब देती है,
‘मेरा उस पर उतना ही विश्वास है जितना विश्वास मुझे दो व्यक्तियों के संबंध में है।’
इस पर अमेरिकी पत्रकार कहता है,
‘राजकुमारी आपका विश्वास गलत साबित नहीं होगा।’
राजकुमारी कहती है कि उसे यह सुनकर प्रसन्नता हुई।
जब वह पत्रकार सम्मेलन समाप्त होता है तो राजकुमारी सबसे हाथ मिलाती है। अमेरिकी पत्रकार राजकुमारी को एक खास तोहफ़ा देता है जिसमें उनके द्वारा खींचे हुये सारे चित्र और निगेटिव रहते है । इसे राजकुमारी मुस्कराहट के साथ स्वीकार करती है और धीरे-धीरे वहां चली जाती है जहां से शायद यह लोग फिर कभी नहीं मिल पाये।
इस फिल्म में मुख्य भूमिका ऑड्री हेपबर्न और ग्रेगरी पेक ने निभायी है और इसका निर्देशन वाइलर ने किया है। यह आड्री हेपबर्न की पहली अमेरिकन पिक्चर थी और उन्हें इस पिक्चर में सबसे अच्छे कलाकार ऑस्कर पुरस्कार भी मिला। यह दोनो मेरे प्रिय कलाकार रहे हैं। इनका अभिनय लाजावाब था।
अंग्रेजी पिक्चरों में, अक्सर, शब्दों के उच्चारण समझने में मुश्किल होती थी। आड्री हेपबर्न तो ब्रिटानी कलाकारा थी उनका उच्चारण आसानी से समझ में आता है पर ग्रेगरी पेक अमेरिकन थे फिर भी उनका उच्चारण एकदम स्पष्ट था। इस कारण से इनकी फिल्में ज्यादा समझ में आती थीं। यह एक प्रेम कहानी है जो कि रिश्तों के बीच आदर और सम्मान की सीमा भी बताती है। यह अच्छी फिल्म है और सपरिवार देखने योग्य है।
मैं नहीं जानता कि यह वास्तविक जीवन में होता है कि नहीं। यह तो एक फिल्म थी पर मेरे विचार में यह पत्रकारिता की मर्यादा को ठीक तरह से परिभाषित करती है और मित्रता का सही अर्थ भी बताती है।
देखें इन दोनो कलाकारों का वास्तविक जीवन भी मित्रता की मिसाल था। आईये इन दोनो के बारे में कुछ और जाने।
अनन्त प्रेम
आड्री हेपबर्न (४/५/१९२९ – २०/१/१९९३) की सगाई १९५० में, जेम्स हेन्सन के साथ हुई, तारीख भी तय हो गयी पर दोनों को लगा कि उनके कैरियर उन्हें अलग रखेंगे इसलिये शादी नहीं की। आड्री हेपबर्न की पहली शादी १९५४ में मेल फेरर, कलाकार, से हुई। यह १४ साल चली। उनके लड़के के अनुसार यह ज्यादा खिंची। तलाक लेने से पहले यह दोनो अलग हो गये थे। उस समय आड्री हेपबर्न एक मनोचिकित्सक एन्ड्रिया डॉटी के यहां जाने लगी। बाद में उसी से १९६९ में शादी कर ली। यह शादी भी १३ साल तक चली।
रोमन हॉलीडे १९५३ में बनी थी। आड्री हेपबर्न इसे अपनी सबसे बेहतरीन फिल्म मानती थीं क्योंकि इस फिल्म ने उन्हें सितारा बनाया था। मैंने उनकी सारी फिल्में देखीं और रोमन हॉलीडे के अतिरिक्त जो फिल्में पसन्द आयीं वह हैं, ‘शराड’, ‘माई फेयर लेडी’, ‘वार एण्ड पीस’, ‘हाउ टू स्टील मिलियन’, ‘वेट अन्टिल डार्क’।
२००३ में, आड्री हेपबर्न के सम्मान में , अमेरीका ने एक स्टैम्प भी निकाला।
ग्रेगरी पेक (५/४/१९१६ – १२/६/२००३), रोमन हॉलीडे के बनते समय (१९५३), हॉलीवुड में बेहतरीन कलाकार के रूप में नाम कमा चुके थे हालांकि उन्हें सबसे अच्छे कलाकार के लिये ऑस्कर पुरस्कार, १९६२ में ‘हाउ टू किल ए मॉकिंग बर्ड’ के लिये मिला। यह पुरस्कार, आड्री हेपबर्न को ऑस्कर पुरस्कार के मिलने के बाद था।
ग्रेगरी पेक ने भी अपने जीवन में दो शादियां की। १९४३ में गेटा कुकोनेन और १९५५ में विरोनीक पसानी के साथ।
मैंने ग्रेगरी पेक की लगभग सारी फिल्में देखीं हैं। रोमन हॉलीडे के अतिरिक्त , ‘मोबी डिक’, ‘हाउ टू किल ए मॉकिंग बर्ड’, ‘द गन्स ऑफ नेवरॉन’, और ‘मैकेन्नाज़ गोल्ड’ उनकी बेहतरीन और देखने योग्य फिल्में हैं।
रोमन हॉलीडे, में वे और आड्री हेपबर्न ने पहली बार साथ काम किया। इन दोनों के बीच, इस फिल्म के दौरान हुई मित्रता जीवन पर्यन्त चली।
रोमन हॉलीडे फिल्म बनते समय उसके विज्ञापन देने की बात चली। इस फिल्म के निर्माताओं ने उसमें ग्रेगरी पेक को ज्यादा स्थान दिया जाने की पेशकश की। उस समय ग्रेगरी पेक हॉलीवुड में स्थापित कलाकार थे पर ऑड्री हेपबर्न की यह पहली हॉलीवुड फिल्म थी। यह ग्रेगरी पेक का बड़प्पन था कि उन्होने कहा कि आड्री हेपबर्न ने इस फिल्म में बहुत अच्छा काम किया है उसे आस्कर पुरस्कार मिलेगा। उसे मेरे बराबर स्थान दिया जाय।
ऑड्री हेपबर्न की मृत्यु के बाद, ग्रेगरी पेक ने नम आंखों के साथ ने रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘द अनइन्डिंग लव’ (The Unending Love) कविता सुनायी।
‘I seem to have loved you in numberless forms, numberless times…
In life after life, in age after age, forever.
My spellbound heart has made and remade the necklace of songs,
That you take as a gift, wear round your neck in your many forms,
In life after life, in age after age, forever.
Whenever I hear old chronicles of love, it’s age old pain,
It’s ancient tale of being apart or together.
As I stare on and on into the past, in the end you emerge,
Clad in the light of a pole-star, piercing the darkness of time.
You become an image of what is remembered forever.
You and I have floated here on the stream that brings from the fount.
At the heart of time, love of one for another.
We have played along side millions of lovers,
Shared in the same shy sweetness of meeting,
the distressful tears of farewell,
Old love but in shapes that renew and renew forever.’
यह आड्री हेपबर्न को सबसे प्रिय कविता थी।
आड्री हेपबर्न और गेगरी पेक बेहतरीन कलाकार, बहुत अच्छे मित्र, फिर भी कभी रूमानी तौर से नहीं जुड़े। रोमन हॉलीडे फिल्म में प्रेम के साथ सम्मान की सीमा थी तो वास्तविक जीवन में मित्रता के साथ उसकी लक्षमण रेखा।
रिश्तों में सबसे पवित्र रिश्ता है मां का – कुछ बाते मेरी मां के बारे में।
अम्मां बचपन की यादों में
बसंत पंचमी १९३९ – मेरी मां, पिता की शादी। मां , उस समय ११वीं कक्षा की छात्रा थीं और पिता उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। १९४० में, पिता ने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और मां ने इण्टरमीडिएट पास किया। पिता तो, बाबा के कस्बे में, वापस आकर व्यवसाय में लग गये पर मां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहर चली गयीं। वे अगले चार वर्ष छात्रावास में रह कर उन्होने स्नातक और कानून की शिक्षा पूरी की। १९४४ में, वे अपने विश्वविद्यालय की पहली महिला विधि स्नातक बनीं। उनकी उच्च शिक्षा पूरी हो जाने के बाद ही, हम भाई-बहन इस दुनिया में आए। १९५० में, मेरे पिता, इस कस्बे में, व्यवसाय की बढ़ोत्तरी के लिये आये।
पिता चाहते थे कि हमारा लालन-पालन एक सामान्य भारतीय के अनुसार हो। वह इतना पैसा जरूर कमाते थे कि हमें हिन्दुस्तान के किसी भी स्कूल में आराम से पढ़ने भेज सकते थे पर उन्होंने हम सब को वहीं पढ़ने भेजा जहाँ हिन्दुस्तान के बच्चे सामान्यत: पढ़ते हैं। हमने अपनी पढ़ाई एक साधारण से स्कूल में पूरी की।
पिता हिन्दी के समर्थक थे। हम भाई बहन हिन्दी मीडियम स्कूल में गये। घर में अंग्रेजी में बात करना मना था। मेरे पड़ोस के सारे बच्चे कस्बे के अंग्रेजी मीडियम विद्यालयों में और कई कस्बे के बाहर हिन्दुस्तान के सबसे अच्छे पब्लिक विद्यालयों में पढ़ते थे। वे सब अंग्रेजी में ही बात करते थे। यह हमें कभी, कभी शर्मिंदा भी करता था। मां हमेशा हमें दिलासा देती,
‘ये लोग अपने स्कूल पर गर्व करते हैं पर तुम्हारा स्कूल तुम पर।’
मां की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। वे अंग्रेजी के महत्व को समझती भी थीं। वे हमें बीबीसी सुनने के लिये प्रेरित करती। प्रतिदिन शाम को, हम सब भाई-बहनों को उन्हें अंग्रेजी की कोई न कोई कहानी या तो रीडर्स डाइजेस्ट से या फिर अखबार पढ़ कर सुनाना पड़ता था। वे हमारा उच्चारण ठीक करती और अर्थ समझाती थीं। किसकी बारी पड़ेगी यह तो हम लोग यह खेल से ही निकालते थे,
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बोल,
अस्सी नब्बे पूरे सौ।
सौ में लगा धागा,
चोर निकल भागा।
बस जिस पर भागा आया उसे ही पढ़नी पड़ती थी।
एक बार मैंने मां से पूंछा कि तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो, तुमने वकालत या कोई और काम क्यों नहीं किया। उनका जवाब था कि,
‘मैं घर की सबसे बड़ी बहूं हूं। तुम्हारे बाबा के कस्बे से तुम्हारे चाचा, बुआ, उनके लड़के, लड़कियां सब यहीं पढ़ने आए। वे सब हमारे साथ ही रहे, यदि मैं कुछ काम करती तो उनका ख्याल, तुम लोगों का ख्याल कैसे रख पाती। पैसे तो तुम्हारे पिता, हम सबके लिए कमा ही लेते हैं बस इसलिए घर के बाहर जाना ठीक नहीं समझा।’
मैंने उन्हें हमेशा सफेद रंग की साड़ी पहने हुए देखा। उनके सफेद रंग की साड़ी पहनने के कारण, गोवा में चर्च के अन्दर, क्रॉस के ऊपर सफेद कपड़े को देख कर, उनकी याद आ गयी।
मैंने मां को कभी सिंदूर लगाये नहीं देखा। एक बार हम ट्रेन में सफर कर रहे थे। एक महिला ने मां से पूछा कि क्या वे विधवा हैं? मां मुस्करायीं और हमारी ओर इशारा कर बोली,
‘इनके पिता को सफेद रंग पसन्द है, बस इसलिये, मैंने इसे अपना लिया। शादी के बाद, जब भी सिंदूर लगाया तो सर में दर्द हो गया – शायद कुछ मिलावट हो। इनके पिता ने सिंदूर लगाने के लिए मना कर दिया। बस इसलिये सिंदूर नहीं लगाती।’
उस महिला ने मां से माफी मांगी पर ट्रेन पर हमारी उनसे अच्छी मित्रता हो गयी। मुझे भी, होली के रंगों से, एलर्जी हो जाती है। शायद, यह मैंने उन्हीं से पाया है।
बहन और मां के बीच में पिक्चर देखने का एक अजीब रिश्ता था। वे दोनों हर हिन्दी पिक्चर को पहले दिन, पहले प्रदर्शन पर जाया करती थीं और पिता के घर वापस पहुँचने के पहले वापस। मैं समझता हूं कि मेरी बहन ने स्कूल वा विश्वविद्यालय से भागकर जितनी फिल्में देखी हैं वह किसी और लड़की ने नहीं देखी होंगीं। जब मेरी बहन ने पढ़ाना शुरू किया तब उसका स्कूल शनिवार को आधे दिन का होता था। तब वे दोनों पहले दिन को छोड़कर शनिवार को पहला शो देखने लगी।
हमें हिन्दी पिक्चर देखने की अनुमति नहीं थी। हम केवल अंग्रेजी पिक्चर ही देख सकते थे। बहन की शादी, मेरे विश्विद्यालय के जीवन के अन्तिम चरण पर हुई। उसके बाद, मेरी मां को पिक्चर देखने के लिए साथी मिलना बन्द हो गया तब मैंने उनके साथ हिन्दी पिक्चर देखना शुरू किया। कुछ दिनों के बाद मेरे दोस्त भी हमारे गुट में शामिल हो गये। टिकट और कोकाकोला के पैसे तो मेरी मां ही देती थी। शादी के बाद, पत्नी शुभा के साथ अनलिखी शर्त थी,
हिन्दी पिक्चर में मेरी मां भी साथ चलेंगी।
वे जब तक जीवित रहीं ऎसा ही रहा। ऐसे हम जब भी कस्बे के बाहर गये, वे हमारे साथ ही गयीं।
मां की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे छोटी-छोटी बातों से जीवन को भरपूर जीना जानती थीं, दशहरे की झांकी हो या कोई मेला हो, वह हमेशा उसमें जाने में उत्साहित रहती थीं और हम लोगों को भी वहां ले जाती थीं। वहां पर चाट खाना, कचौड़ी खाना उनको प्रिय था और हमें भी। मुझे यह अब भी प्रिय है पर शुभा को नहीं। बस जब वह नहीं होती है तब ही इसका आनन्द उठाता हूं 🙂
मेरी मां एक गरीब परिवार से थीं और वह कहती थीं कि उनके घर एक बार ही खाना बनता था। वे हर का, खास तौर से गरीब रिश्तेदारों का ख्याल ज्यादा ही रखती थीं। उनका कहना था कि जो जीवन में बहुत नहीं कर पाया उसका बहुत ख्याल रखना चाहिए क्योंकि वह शायद हिचक के कारण कुछ न कह पाये।
मैंने मां को पिता से कभी बात करते नहीं देखा पर उनके कुछ न कहने पर वह मेरे पिता के मन की हर इच्छा जान जाती थीं। वे पिता की हर बात नहीं मानती थीं कई बार वे हमारा साथ देती थीं पर जिसे वे मानती थी वह उनके न बताये भी जान जाती थीं जैसे कि वे उनका मन पढ़ लेती हों। मैं अक्सर सोचता हूं कि शुभा क्यों नहीं मेरे मन की बात समझ पाती। वह मुझसे कहती है,
‘तुम्हारे मन में जो है वह मुझे बताते क्यों नहीं। मुझे कैसे मालुम चले कि तुम क्या चाहते हो।’
लगता है कि मेरी मां किसी और मिट्टी की बनी थीं। वह मेरे पिता के बिना बोले ही उनका मन जान जाती थीं।
परिवार में यौन शिक्षा
सेक्स का विषय हर जगह वर्जित है। हांलाकि कि बीबीसी के मुताबिक बहुत कुछ बदल रहा है। सीबीएससी में यौन शिक्षा को पाठ्य-क्रम में रखा गया है। हांलाकि इसे कई राज्य सरकारों ने रखने से मना कर दिया। मैं यौन शिक्षा का पक्षधर हूं पर यह किस तरह से हो इसमें जरूर संशय है। आइये कुछ बात करते हैं मेरे परिवार में किस तरह से हुई।
यह चिट्ठी रिश्तों के बारे में है। इस चिट्ठी में यौन शिक्षा के ऊपर बात करना – कुछ अजीब लग रहा है न आपको। चलिये मैं पहले यह स्पष्ट कर दूं कि यह इस चिट्ठी के अन्दर क्यों है?
महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा छेड़छाड़ भीड़-भाड़ की जगह होती है पर यौन उत्पीड़न सगे संबन्धी या जान पहचान व्यक्ति के द्वारा ही ज्यादा होता है। कुछ समय पहले, मैंने इसका उल्लेख ‘उफ, क्या मैं कभी चैन से सो सकूंगी‘ चिट्ठी में किया है। पारिवारिक रिश्तों के अन्दर, यौन शिक्षा किस तरह से हो, एक नाजुक पर महत्वपूर्ण विषय है। इसीलिये मैं इसे इस चिट्ठी में रख रहा हूं।
मैं नहीं जानता कि इस विषय को बताने का क्या सबसे अच्छा तरीका है पर मैं वह तरीका अवश्य जानता हूं जैसा कि हमारे परिवार में हुआ। मैंने यह विषय कैसे अपनी आने वाली पीढ़ी को बताया। मुझे, अक्सर स्कूल, विद्यालय, विश्व विद्यालय में जाना पड़ता है। बच्चों से मुकालात होती है। अक्सर, मेरे पास बच्चे यह पूछने के लिये आते हैं कि वे क्या कैरियर चुने, कहां जायें। कभी कभी, मैं उनसे इस विषय पर भी बात करता हूं। मैं, क्या उन्हें बताता हूं, यहां कुछ उसी के बारे में।
मेरे बचपन का एक बहुत अच्छा मित्र, टोरंटो इंजीनियरिंग कॉलेज में अध्यापक रहा। कुछ समय पहले उसकी मृत्यु हो गयी। बचपन में ही उसके पिता का देहान्त हो चुका था। भाई, बहनो की भी शादी के बाद, वह और उसकी मां हमारे ही कस्बे में रहते थे। अक्सर उसकी मां उसके भाई या बहनो के पास रहने चली जाती थी। उस समय उसका घर खाली रहता था। उस समय, उसके घर, काफी धमाचौकड़ी रहती थी।
यह १९६० का दशक था। हेर संगीत नाटक का मंचन हो चुका था। मैंने, इसका जिक्र ‘ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके‘ श्रंखला की इस कड़ी में किया है। हिप्पी आंदोलन अपने चरम सीमा पर था। इस धमाचौकड़ी में, अक्सर लड़कियों भी शामिल रहती थीं। कभी कभी चरस और गांजा भी चलता था। मैं खेल में ज्यादा रुचि रखता था। मुझे जिला, विश्वविद्यालय एवं अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य मिला। इसी कारण इस तरीके की धमाचौकड़ी में शामिल नहीं रहता था।
एक बार मेरे मित्र को कुछ ब्लू फिल्में मिल गयीं। एक दूसरे मित्र ने प्रोजेक्टर का इंतजाम कर दिया। उन लोगों ने फिल्म को भी देख लिया। यह सोचा गया कि उसे फिर देखा जायगा पर सवाल था कि ब्लू फिल्म कहां रखी जाय। कोई भी उसे रखने को तैयार नहीं था। मैं ही ऐसा था जो कि इस धमाचौकड़ी मे शामिल नहीं था। इसलिये मेरे पास ही रखना सबसे सुरक्षित समझा गया या यह समझ लीजये कि मुझे उन ब्लू फिल्मों को रखने में कोई हिचक नहीं थी।
मैं ने यह ब्लू फिल्में अपने कपड़े की अलमारी में रख दी। एक दिन मेरे कपड़े लगाते समय मां को ब्लू फिल्में मिल गयीं। उनके पूछने पर मैंने सारा किस्सा बताया और यह भी बताया कि मैंने कोई भी ब्लू फिल्म नहीं देखी है। मां पूछा कि मुझे सेक्स के बारे में कितना ज्ञान है। मेरा जवाब था थोड़ा बहुत। उन्होने कहा कि,
‘ब्लू फिल्मों मे बहुत कुछ नामुमकिन बात होती है और अधिकतर जो भी होता है वह ठीक नहीं। तुम्हें मालुम होना चाहिये कि क्या ठीक नहीं है। इसलिये इसे, तुम्हें देख लेना चाहिये पर उसके पहले सेक्स का अच्छा ज्ञान भी होना चाहिये।’
हम लोग किताबों की दुकान पर गये और वहां से एक पुस्तक Everything you always wanted to know about sex but were afraid to ask by David Reuben खरीद कर लाये। यह पीले रंग की पुस्तक है इसलिये यह पीली पुस्तक के नाम से भी मशहूर हुई।
सेक्स के सम्बन्ध में उत्तेजना चित्र देख कर या उसके वर्णन से होती है। इस पुस्तक में कोई भी चित्र नहीं हैं। इसमें सारा वर्णन प्रश्न और उत्तर के रूप में है। इसे पढ़ कर कोई उत्तेजना नहीं होती है। इस पुस्तक में कुछ सूचना समलैंगिक रिश्तों और सेक्स परिवर्तन के बारे में है। यह इस तरह के विषयों को नकारती है। इसी लिये कुछ लोग इस पुस्तक पर विवाद करते हैं। यह दोनो विषय विवादस्पद हैं। मैंने इनके बारे में ‘Trans-gendered – सेक्स परिवर्तित पुरुष या स्त्री‘, ‘आईने, आईने यह तो बता – दुनिया मे सबसे सुन्दर कौन‘, ‘मां को दिल की बात कैसे बतायें‘, और ‘मां को दिल की बात कैसे पता चली‘ नाम से लिखा है। यदि आप इस पुस्तक में इस विषय की सूचना को छोड़ दें तो बाकी सूचना के बारे में कोई विवाद नहीं है और लगभग सही है। मेरे विचार से यह एक अच्छी पुस्तक है।
मैंने, इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ब्लू फिल्म देखना जरूरी नहीं समझा। ब्लू फिल्म न देखने के निर्णय में, कई अन्य बातों ने भी महत्वपूर्ण रोल निभाया। मां ने,
- मुझे न तो उन फिल्मों को रखने के कारण डांटा, न ही देखने के लिये मना किया, जिसकी मनाही हो उसी के बारे में उत्सुकता ज्यादा रहती है;
- हमेशा हमें, बाहर के खेल पर, पढ़ाई से भी ज्यादा ध्यान देने के लिये प्रोत्साहित करती थीं। उस समय पढ़ाई का वैसा बोझ नहीं था जैसा कि आजकल होता है।
मां का प्रिय वाक्य थे,
‘पढ़ाई बन्द करो और बाहर जा कर खेलो।’
यदि हम रात को देर तक पढ़ते थे तो हमेशा कहती थीं,
‘चलो, सोने जाओ। बहुत रात तक पढ़ना ठीक नहीं।’
परीक्षा के दिनो में तो हमारे कमरे की बत्ती बहुत ज्लद ही बन्द कर दी जाती थी। वे कहती थीं,
‘परीक्षा के समय दिमाग एकदम तरोताजा रहना चाहिये।’
मैंने अपने बेटे को, जब स्कूल में ही था तब यह पुस्तक पढ़ने के लिये दी। वह बारवीं के बाद आईआईटी कानपुर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चला गया और हॉस्टल में ही रहा। मैं समझता हूं कि उन्हें इस पुस्तक के पढ़ने के कारण मदद मिली।
देश के कुछ महाविद्यालयों में, पास-ऑउट करने वाले छात्रों की एक पत्रिका निकाली जाती है। आई.आई.टी. कानपुर में भी ऐसा होता है। यह पत्रिका विद्यार्थी ही निकालते हैं इसमें उनके साथी ही उन्हीं के बारे में लिखते हैं। मैं एक बार उनकी इस पत्रिका को पढ़ने लगा तो उन्होने मना किया,
‘पापा, तुम मत पढ़ो। इसे पढ़ कर तुम्हे अच्छा नहीं लगेगा।’
मैंने कहा,
‘मैं भी अपने विद्यार्थी जीवन में इन सब से गुजर चुका हूं इसलिये कोई बात नहीं।’
उनकी पत्रिका में बहुत सारी बातें स्पष्ट रूप से लिखी थीं। हमारे समय में भी उस तरह की बातें होती थी पर इतना स्पष्ट रूप से नहीं लिखा जाता था। मैंने School Reunion चिट्ठी लिखते समय लिखा था कि मेरे बेटा आई.आई.टी. कानपुर की पत्रिका में दी गयी पहली दो सूची में नहीं हैं पर विद्यार्थियों की इस पत्रिका में उनके बारे में यह अवश्य लिखा है कि वह सबसे साथ सुथरा बच्चा है। हो सकता है यह उसके संस्कारों के कारण हो पर मेरे विचार से यह उनके इस पुस्तक को पढ़ने और यौन शिक्षा को अच्छी तरह से समझने के कारण भी है।
मेरे विचार में, परिवार के अन्दर, आने वाली पीढ़ी को अच्छी किताबें बताना, मुक्त पर स्वस्थ यौन चर्चा करना, एक अच्छी बात है। अन्यथा, नयी पीढ़ी को गलत सूचना मिल सकती है और वे गलतफहमी के शिकार हो सकते हैं।
करो वही, जिस पर विश्वास हो
कई दशक पहले, जून १९७५ में आपातकाल की घोषणा हुई थी। उस समय, मैं कश्मीर में था। लोग पकड़े जाने लगे। मुझे लगा कि मुझे कस्बे पहुंचना चाहिये। मेरे पिता पकड़े जा सकते हैं और मां अकेले ही रह जांयगी। यही हुआ भी। मेरे कस्बे पहुंचते पता चला कि पिता को झूठे केस में डी.आई.आर. में बन्द किया गया। उन पर इल्जाम लगाया गया कि वे यह भाषण दे रहे थे कि जेल तोड़ दो, बैंक लूट लो। यह एकदम झूट था। उस समय देश की पुलिस और कार्यपालिका से सरकारी तौर पर जितना झूट बुलवाया गया उतना तो कभी नहीं, यहां तक अंग्रेजों के राज्य में भी नहीं। डी.आई.आर. में मेरे पिता की जनामत हो गयी पर वे जेल से बाहर नहीं आ पाये। उन्हें मीसा में पकड़ लिया गया।
यह समय हमारे लिये मुश्किल का समय था। समझ में नहीं आता था कि पिता कब छूटेंगे। इस बीच, मित्रों, नातेदारों ने मुंह मोड़ लिया था। लोग देख कर कतराते थे। उनको डर लगता था कि कहीं उन्हें ही न पकड़ लिया जाय। मां यह समझती थीं। उन्होंने खुद ही ऐसे रिश्तेदारों और मित्रों को घर से आने के लिये मना कर दिया ताकि उन्हें शर्मिंदगी न उठानी पड़े। मुझे ऐसे लोगो से गुस्सा आता था। मैंने बहुत दिनो तक अपने घर कर बाहर पोस्टर लगा रखा था,
‘अन्दर संभल कर आना, यहां डिटेंशन ऑर्डर रद्दी की टोकड़ी पर पड़े मिलते हैं।’
इस मुश्किल समय पर कइयों ने हमारा साथ भी दिया। उन्हें भूलना मुश्किल है: उन्हें भी भूलना मुश्किल है जो उस समय डर गये थे।
दो साल (१९७५-७७), मैंने न कोई पिक्चर देखी, न ही आइसक्रीम खायी, न ही कोई दावत दी, न ही किसी दावत पर गये। पैसे ही नहीं रहते थे। उस समय भी लोग, अक्सर हमसे पैसे मांगने आते थे। उन्हें भी मना नहीं किया जा सकता था वे भी मुश्किल में थे, उनके प्रिय जन भी जेल में थे।
आपातकाल के समय, कई लोग माफी मांग कर जेल से बाहर आ गये पर पिता ने नहीं मांगी। उनका कहना था,
‘मैंने कोई गलत काम नहीं किया। मैं क्यों माफी मांगू। माफी तो सरकार को मागनी चाहिये।’
वे लगभग दो साल तक जेल में रहे। १९७७ के चुनाव के बाद पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी, चुनाव हार गयी तभी वे छूट पाये।
मां से संबन्धित आपतकाल की एक घटना मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है। वे हमेशा कहती थीं,
‘करो वही, जिस पर विश्वास हो। दिखावे के लिये कुछ करने की कोई जरूरत नहीं।’
वे न इसे कहती थीं पर इसे अमल भी करती थीं। नि:संदेह, ढ़कोसलों का उनके जीवन पर कोई स्थान नहीं था।
आपतकाल के दौरान, जब मेरे पिता जेल में थे तो हमारे शुभचिन्तक हमारे घर आये। उन्होंने मेरी मां से अकेले में बात करने को कहा। बाद में मैंने मां से पूछा कि वे क्यों आये थे और क्या चाहते थे। मां ने बताया,
‘वे कह रहे थे कि यदि मैं मंदिर में शिव भगवान की आराधना करूंगी, तो तुम्हारे पिता छूट सकेंगे।’
मां ने यह नहीं किया। वे आर्यसमाजी थीं और इस तरह के कर्मकाण्ड (ritual) पर उनका विश्वास नहीं था। उनका कहना था कि,
‘शिव अराधना केवल मन की शान्ति के लिये है। उससे कोई नहीं छूटेगा। लोग तो छूटेंगे न्यायालाय से या फिर जनता के द्वारा।’
उच्च न्यायालय ने तो हमारा साथ दिया पर सर्वोच्च न्यायालय ने हमें शर्मिन्दा किया। सीरवाई एक प्रसिद्ध न्यायविद रहे हैं। वे बहुत साल तक महाराष्ट्र राज्य के महाधिवक्ता रहे और उनकी भारतीय संविधान पर लिखी पुस्तक अद्वतीय है। इस पुस्तक (Constitution of India: Appendix Part I The Judiciary Of India) में वे कहते हैं कि,
‘The High Courts reached their finest hour during the emergency; that brave and courageous judgements were delivered; … the High Courts had kept the doors ajar which the Supreme Court barred and bolted’.
आपातकाल का समय, उच्च न्यालयों के लिये सुनहरा समय था। उस समय उन्होने हिम्मत और बहादुरी से फैसले दिये। उन्होने स्तंत्रता के दरवाजों को खुला रखा पर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे बन्द कर दिया।
आपातकाल के बाद, वे सब हमारे पास पुन: आने लगे जिन्होंने हमसे मुंह मोड़ लिया था। मां, पिता ने उन्हें स्वीकार कर लिया, हमने भी। सरकार ने पिता को राजदूत बनाकर विदेश भेजने की बात की पर उन्होने मना कर दिया। वे अपने सिद्घान्त के पक्के थे। आपातकाल के समय न माफी मांगी और न ही बाद में कोई पद लिया। उनका कहना था,
‘मैंने किसी पद के लिये समाज सेवा नहीं की।’
मुझे अच्छा लगता है, गर्व भी होता है कि मेरी मां, मेरे पिता ऐसे थे। जिन्होंने हमेशा वह किया जो उन्हें ठीक लगता था – दुनिया के दिखावे के लिये नहीं।
जो करना है वह अपने बल बूते पर करो
मेरे पिता हमेशा अपने व्यवसाय या फिर समाजिक सेवा में व्यस्त रहते थे। उनके पास हमारे या मां के लिये कभी समय नहीं होता था। हमें, इसका हमेशा मलाल रहा।
मैं अक्सर अपने मित्रों को पिता के साथ मौज करते देखता था, जलन भी होती थी। यह सारी कमी मां ही ने पूरी की। पिता यदि चाहते तो बहुत पद मिल सकते थे हमारे लिये बहुत कुछ कर सकते थे पर कभी किया नहीं। सबके पिता करते थे इसीलिये हमें अपने पिता समझ में नहीं आते थे। उनका कहना था,
‘जो करना है वह अपने बल बूते पर करो। यही जीवन सार्थक जीवन है।’
आज, जीवन के तीन चौथाई बसन्त देख लेने के बाद, अब पिता समझ में आने लगे हैं, उनके सिद्धान्त भी समझने लगा हूं, उन पर गर्व भी होने लगा है।
मेरे विचार में, पिता की कही बातों के साथ, यह भी आवश्यक है कि हम आने वाली पीढ़ी के साथ समय व्यतीत करें। हमारे बच्चे ही हमारे सबसे बड़ी सम्पदा हैं। पिता के सिद्धन्तो के कारण हम उस स्कूल में गये जहां एक साधरण हिंदुस्तानी जाता है। शायद यही कारण हो कि मैंने अपने मुन्ने का दाखिला देहरादून में, हिन्दुस्तान के एक सबसे जाने माने बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया। दाखिले के समय उस स्कूल के प्रधानाचार्य (या शायद उप- प्रधानाचार्य) ने कहा,
‘हमारा स्कूल हिन्दुस्तान का सबसे अच्छा स्कूल उन बच्चों के लिये है जिनके माता पिता के पास बच्चों के लिये समय नहीं है।’
मुझे अपना जीवन याद आया। मैंने मुन्ने को वहां नहीं भेजा। मैं नहीं चाहता था कि मेरा बेटा कभी सोचे कि हमारे पास उसके लिये समय नहीं था।
रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन (Richard Philips Feynman) भौतिक शास्त्र में नोबल पुरुस्कार विजेता थे। वे पिछली शताब्दी के दूसरे भाग के सबसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक रहें हैं। उनकी गोद ली हुई पुत्री ने उनके पत्रों को सजों कर, ‘Don’t you have time to think‘ पुस्तक लिखी है। मैंने, इस पुस्तक के बारे में ‘क्या आपके पास सोचने का समय नहीं है?‘ नाम से श्रंखला लिखी है। अपने मुन्ने के साथ बिताये कुछ पलों का जिक्र मैंने इस श्रंखला की ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा‘ चिट्ठी में किया है।
अम्मा – अन्तिम समय पर
मेरे पिता अपने काम में व्यस्त रहते थे या फिर समाज सेवा में। उनके पास, हमारे या मां के लिये समय नहीं रहता था। इसलिए मां को जहां भी जाना होता था, वे हमारे साथ ही जाती थीं। यह रवैया हमारी शादी के बाद भी चला। मेरी पत्नी शुभा ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया।
मां दूसरों के मन की बात समझती थीं और उसे पूरा करने का भरसक प्रयत्न करती थीं। १९८० के दशक में उन्हें दिल की बीमारी हो गयी, अक्सर डाक्टर उन्हें देखने आया करते थे। मेरी सास ने कई साल अमेरिकी विश्विद्यालयों में पढ़ाया है। मेरी शादी के बाद जब वे सबसे पहले पढ़ाने के लिये गयीं तो शुभा, मेरी मां की बीमारी के कारण उन्हें दिल्ली तक छोड़ने नहीं जा पा रही थी। उसने मुझे कहा कि मैं दिल्ली जाकर उसकी मां (मेरी सास) को छोड़ आऊं।
मैंने दिल्ली जाने का प्रोग्राम भी बना लिया। शाम को उसने फोन करके बताया कि अम्मा की तबियत खराब है और मैं घर आ जाऊं। उसने डाक्टर को भी बुला लिया था। जब तक मैं घर पहुँचा, डाक्टर साहब मां को देख चुके थे और जाने लगे। चलते-चलते जब मैं डाक्टर साहब को उनकी कार तक छोड़ने गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि,
‘अम्मा की तबियत ठीक है और तुम दिल्ली जा सकते हो।’
मैंने कहा कि मैं इस बारे में सोचूंगा। मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था और दिल्ली नहीं गया।
मां की तबियत अगले दिन बहुत अच्छी हो गयी। मुझे लगा कि मैंने बेकार ही दिल्ली प्रोग्राम रद्द किया। इसके दिन बाद, मां ने सुबह चाय बनायी। अखबार पढ़ते-पढ़ते, चाय की चुस्की लेते, उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वे वहां चली गयीं, जहां से कोई वापस नहीं आता। वे अन्त तक सारे काम स्वयं करती रहीं। उन्हें न कभी किसी सहारे की जरूरत पड़ी, न ही उन्होंने किसी का सहारा लिया, न ही वे ऐसा जीवन पसन्द करती थीं। शायद भगवान भी, जिससे ज्यादा प्यार करता है – उसे इसी तरह की जिन्दगी, इसी तरह की मौत देता है। हे ईश्वर, मुझे भी इसी तरह की मौत देना।
कुछ दिनों बाद, बातचीत के दौरान मैंने शुभा से कहा कि,
‘अच्छा हुआ कि मैं दिल्ली नहीं गया और चला जाता तो मैं कभी अपने आपको माफ नहीं कर पाता पर मेरी समझ में नहीं आया कि डाक्टर साहब ने यह कैसे कह दिया कि मैं दिल्ली जा सकता हूं जबकि अम्मां की तबियत ठीक नहीं थी।’
उसने जवाब दिया,
‘जब तुम नहीं थे तो अम्मा ने डाक्टर साहब से कहा था कि, तुम दिल्ली जाना चाहते हो, प्रोग्राम बना है और टिकट भी आ गया है, इसलिए डाक्टर साहब तुमसे कह दें कि उनकी तबियत एकदम ठीक है और यह न कहें कि कुछ टेस्ट करवाने हैं। जो भी टेस्ट करवाना है वे अगले दिन आकर लिख देंगे। वे उसकी फीस अलग से दे देंगी। उन्होंने मुझे और डाक्टर सहब को तुम्हें यह न बताने कि कसम भी दिलवा दी थी। इसलिए मैंने तुम्हे नहीं बताया और डाक्टर साहब ने तुम्हे दिल्ली जाने को कह दिया।’
मुझे लगा कि वह मरते समय भी, इस बात का ख्याल रखती थी कि हम क्या चाहते हैं।
हो सकता है कि आज के समय में बेटे और बेटियों का मां से रिश्ता मदर-डे पर एक कार्ड देना ही रह गया हो पर मैं नहीं समझता कि मां का अपने बेटे और बेटियों से रिश्ता कार्ड तक है। यह कहीं ज्यादा गहरा, कहीं ज्यादा सच्चा है। मैं नहीं समझता कि इसे आंकने के लिये कोई नपना है, न कभी कोई नपना बनाया जा सकेगा।
मैं तुमसे प्यार करता हूं कहने का एक तरीका यह भी
अधिकतर भारतीय पति पत्नी को आपसी स्नेह प्रगट करना बहुत मुश्किल है क्या इस पर बदलाव आयेगा?
उन्मुक्त ने भी, आज तक मुझसे, स्नेह प्रगट करने वाले शब्द नहीं कहे हैं। मुझे इसका इंतजार है पर हमारे जीवन में कुछ ऐसा अवश्य हुआ है।
यह मेरा जन्मदिन हमेशा याद रखते हैं पर लगभग दो दशक पहले मेरे जन्मदिन पर एक बार मुझसे कुछ नहीं कहा। मुझे लगा कि यह मेरा जन्मदिन भूल गये हैं। मैंने भी इन्हे याद नहीं दिलाया पर बुरा जरूर लगा। उस दिन शाम को हमारे मित्र की बिटिया के जन्मदिन की पार्टी एक रेस्ट्राँ में थी। उस समय इनकी एक मीटिंग थी इसलिये ये वहां नहीं जा सकते थे। इन्होने मुझसे जाने के लिये और एक उपहार देने के लिये कहा। मुझे बहुत गुस्सा आया – मेरा तो जन्म दिन भी याद नहीं और दूसरे के लिये उपहार।
मैं और हमारा बेटा शाम को रेस्ट्राँ में गये। थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि हमारे मित्र और रेस्ट्रां मालिक मेरे बारे में बात कर रहे हैं। वे मेरी तरफ देख रहे थे और कुछ इशारा सा कर रहे थे। मुझे कुछ अजीब सा लगा। इसके बाद रेस्ट्रां मालिक, फूलों का एक सुन्दर सा गुलदस्ता लाया। मैं समझती रही कि यह तो उस लड़की के लिये होगा जिसका जन्मदिन है पर उसने वह मुझे भेंट किया और कहा कि कोई सज्जन इसे मुझे देने के लिये कह गये थे। मैंने उससे उस सज्जन का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह उस व्यक्ति को शक्ल से पहचानता है पर नाम नहीं मालुम। गुलदस्ते के साथ लगे कार्ड में लिखा था
‘क्या बताने की जरूरत है कि यह किसकी तरफ से है।’
हमारे मित्र ने बताया कि वह रेस्ट्राँ मालिक, मुझे गुलदस्ता देने में डर रहा था कि कहीं मैं बुरा न मान जाऊं। वह हमारे मित्र से इसी बारे में पूछ रहा था। रेस्ट्राँ मालिक को वास्तव में इनका नाम नहीं मालुम था पर जब उसने हमारे मित्र को गुलदस्ता देने वाले का हुलिया बताया तो मित्र ने उसे अश्वस्त किया कि वह व्यक्ति कोई और नहीं पर मेरे पति ही हैं, वे इसी तरह के काम करते हैं। गुलदस्ता देने में कोई हर्ज नहीं।
शायद रिशतों में यह भी महत्वपूर्ण है कि जीवन में कुछ न कुछ अप्रत्याशित होते रहना चाहिये।
पुराने रिश्तों में नया-पन, नये रिश्तें बनाने से बेहतर है
वर्ष २००८ में, उन्मुक्त फिर से मेरा जन्मदिन फिर भूल गये थे। यह एक बिमारी जूझ कर उठे थे … मौत के करीब से गुजरे थे। मुझे यही लगा कि यह उसी उलझन में भूल गये। यह समय इन सब बातों को याद दिलाने का नहीं है। मैं भी भूल गयी।
मेरे घर के पास एक स्वामी जी योग सिखाते हैं। शाम को वे महिलाओं को अलग से सिखाते हैं। मैं अपनी सखियों के साथ वहां पैदल जाती हूं। उस दिन शाम को लौटते समय, मेरे घर के सामने कई कारें खड़ी थीं। मेरी सखी ने मुझसे कहा,
‘क्या तुम्हारे यहां कोई दावत है।’
मैंने कहा नहीं, पर लगता है कि कुछ लोग मिलने आयें हैं।
अन्दर पोर्टिको में एकदम नयी बिना नम्बर की कार खड़ी थी। उसमें रिबन लगा था। मुझे लगा कि हमारा कोई मित्र अपनी नयी कार दिखाने आया है।
अन्दर ड्रॉइंग रूम में मेरे परिवार के सदस्य, मेरे मित्र थे, एक केक था जिसमें लिखा था जन्मदिन मुबारक और मुझे बाहर नयी कार, मेरे जन्ददिन पर इनकी तरफ से उपहार।
कार मारुति की ए-स्टार है जो कि ११ नवम्बर को निकली थी। यह उसका सबसे अच्छा और सबसे मंहगा (चार लाख दस हज़ार रुपये) वाला मॉडेल है।
यह हमारे कस्बे में बिकने वाली इस तरह की पहली कार है। इस कार को, न तो मैंने न ही इन्होंने, इसे चलाया या देखा था। उसके बारे में इन्होंने बिमारी के दौरान नर्सिंग होम के कमरे में टीवी में देखा था और हमारे मित्र से इसे चुपचाप ऑर्डर देने के लिये कहा था। सबके चले जाने के बाद, मैंने इनसे पूछा,
‘इस समय इतना मंहगा उपहार क्यों? हमें इस समय न केवल पैसों की जरूरत है पर तुम्हें अपने स्वास्थ और समय का भी ध्यान रखना है। तुमने व्यर्थ में ही इस अप्रत्याशित मंहगे उपहार को खरीदा और दावत इन्तजाम करने में समय जाया किया। यह समय इसके लिये नहीं है।’
इनका जवाब था।
‘हमने ३० साल साथ साथ गुजार लिये हैं। इतने समय बाद रिश्तों में बासीपन आ जाता है। ऐसे में यदि पुराने रिश्तों में नयापान न लाया जाय तो नये रिश्ते कायम हो सकते हैं। पुराने रिश्तों में नया-पन, नये रिश्तें कायम होने से बेहतर है।’
महत्वपूर्ण है रिश्तों में नयापन लाना, देखना कि वे टूटें नहीं।
(यहां से बाकी लेख मेरा लिखा हुआ है)
प्रेम तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो
यह कोई बीस साल पहले की बात है, पहली बार लम्बे समय के लिये विदेश जा रही थी। मुन्ने को कुछ गर्व था तो कुछ दुख कि मां इतने लम्बे समय के लिये छोड़ कर जा रही है। एक दिन उसने मुझसे पूछा, क्या मां हमें प्यार नहीं करती। मैंने कहा नहीं वह हम सबसे बहुत प्यार करती है पर तुम ऐसा क्यों सोचते हो। उसने पूछा,
‘यदि वह हमसे प्यार करती है तो इतने दिन तक हमें क्यों छोड़ कर जा रही है। हमें कुछ मुश्किल होगी तो कौन बतायेगा।’
मैं उसे कैसे बताऊं ।
हमने बैठ कर कई मुद्दों पर बात की। मैंने कहा, मैं तो रहूंगा, तुम्हें कोई मुश्किल नहीं होगी। उन्होने पूछा,
‘क्या तुम्हारे पास समय है’
मैंने कहा कि जब मां थी तो वह समय निकालती थी, जब तक वह नहीं है, तब मैं निकालूंगा। उनको यह बताने का प्रयत्न किया,
‘प्यार तो विश्वास है, यह लोगों को बांधता नहीं पर उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है जो उनके जीवन में महत्वपूर्ण है। रिश्तों का बांध कर रखना ठीक नहीं।’
मैं नहीं जानता कि मुन्ना कितना समझ पाया पर यह सच है कि उसने अपनी मां का विदेश जाना, स्वीकार कर लिया। उसके पीछे, वह बहुत खुश भी रहा। मैं नहीं जानता कि वह इसलिये की उसे मेरी बात समझ में आयी या इस लिये कि उसकी मां तो आर्मी की जनरल साहिबा हैं और मैं – शायद भावना में हर पल को जीने वाला। मुन्ने को इतनी छूट कभी नहीं मिली – इस समय भी नहीं, जब वह अपना बसेरा, सात समुन्दर पार, बहुत दूर, बसाने चला गया।
पिछले साल हम सब, मेरा बेटा, बिटिया रानी (मेरी बहूरानी) साथ थे। मैंने पूछा,
‘क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?’
उनका जवाब था,
‘पापाऽऽ!! यह कैसा सवाल है।’
मैंने बहुत सीरियस हो कर पूछा तुम लोग बहुत दूर, सात समुंदर पार चले गये हो बस इसलिये जानना चाहा। वह, मेरी सीरियस मुद्रा देखकर समझ गया। उसने मुस्कराते हुऐ, जवाब दिया,
‘पापा, हमें तुम्हारी बीस साल पहले की बात आज भी याद है।’
वह मुझसे कहता है कि मैं भी वहीं उसके पास आ जाऊं पर मैं जानता हूं कि मेरा जीना यहां ही है और मेरी मौत भी यहीं होगी।
प्यार तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो। यदि बांध कर रोका तो यही होगा, जैसा यहां हुआ 🙂
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।
खामोशी फिल्म १९६९ में आयी। इसका निर्देशन असित सेन ने किया है। इसमें राजेश खन्ना और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका निभायी थी। इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है,
राजेश खन्ना एक असफल प्रेम प्रसंग के कारण अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। पागलखाने में राधा नाम की एक नर्स हैं जिसका किरदार वहीदा रहमान ने निभाया है। डाक्टर, वहीदा रहमान को राजेश खन्ना के साथ प्रेम का नाटक करने को कहते हैं। राजेश खन्ना तो ठीक हो जाते हैं पर वहीदा रहमान अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है क्योंकि इसके पहले धर्मेन्द्र के साथ प्रेम का नाटक करते-करते वह सच में उससे प्रेम करने लगती है और बार-बार प्रेम का नाटक नहीं कर सकती।
खामोशी की सहृदय नर्स राधा के किरदार में वहीदा का अभिनव अद्वितीय है इसको उनकी जैसी संवेदनशील कलाकारा ही अभिनीत कर सकती थीं कोई और नहीं। हांलाकि मुझे इस फिल्म की कहानी में कोई दम या सत्यता नहीं लगती। किसी का इस प्रकार से दिमाग खराब नहीं हो सकता है।
इस फिल्म में गुलजार का लिखा एक गीत है जिसे लता मंगेशकर ने गाया है। यह गाना मेरे प्रिय गानो में से एक है। इसके बोल इस प्रकार हैं:
‘हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू,
हाँथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।
प्यार कोई भूल नहीं, प्यार आवाज नहीं,
एक खामोशी है, सुनती है कहा करती है।
न ये झुकती है न रूकती है न ठहरी है कहीं,
नूर की बूंद है सदियों से बहा करती है।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।
मुस्कराहट से खिली रहती है आँखों में कहीं,
और पलकों के उजाले से झुकी रहती है।
होंठ कुछ कहते नहीं काँपते ओठों से मगर,
इसमें खामोशी के अफसाने रूके रहते हैं।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।’
इस गाने को, विडियो में भी सुन सकते हैं।
जहां तक मैं समझता हूं, यही है इस चिट्ठी का सरांश, यही है। इस जमाने की रमती खुशबू, यही है – रिश्तों की महकती खुशबू। रिश्ते तो हैं विश्वास, इसे बांध कर मत रखो – प्रेम तो अपने हर रंग में, बन्धन रहित है।
पुनःलेख – जीना इसी का नाम है
यह श्रंखला मुझे, मेरे बचपन के जीवन की यादों में, मेरे उन्मुक्त दिनों के बीच ले गयी। वे दिन ही मेरे जीवन के सबसे सुखद दिन थे, चिन्ता रहित थे।
इस श्रंखला को लिखते समय, एक शादी के समय, हम सब भाई, बहन, हमारे बेटे, बेटियां, बहुरानियां, दामाद सब साथ थे। हमने अपनी मां के साथ के, अपने बचपन के दिनों को फिर से जिया। उन चिट्ठियों को पढ़ने के बाद हम सब की आंखें नम थीं। हांलाकि हमारी आने वाली पीढ़ी उसे उतना नहीं समझ पायी जितना हम चाहते थे। समय बदल गया, समीकरण बदल गये, समाज का ढांचा बदल गया।
हम सब ने अपने सुखद दिनो की याद की, उनमें पुनः जिया। इस तरह की अनुभूति जीवन में प्रसन्नता एवं उत्साह भरता है और जीवन में कुछ नया करने को न केवल प्रेरित करता है पर इसकी हिम्मत भी देता है। इस श्रंखला ने वह सब न केवल मेरे साथ पर हमारे परिवार के साथ किया।
इस श्रंखला कि एक चिट्ठी शैली (Percy Bysshe Shelley) कि कविता ‘To a Skylark’ की एक पंक्ति ‘Our sweetest songs are those that tell of saddest thought’ है। इस कविता आप यहां पढ़ सकते हैं।
मैं अंग्रेजी या हिन्दी साहित्य का कभी भी विद्यार्थी नहीं रहा। कुछ थोड़ा बहुत अपने आप ही पढ़ा है। शैली को भी तभी पढ़ा था। जब मैं इस विषय पर लिखने की सोचने लगा तो मैंने अपने एक मित्र उसकी पत्नी से फोन कर शैली की उस पंक्ति का मतलब समझाने को कहा। वे दोनो अंग्रेजी विषय पढ़ाते हैं। तीन दिन बाद मिलना तय हुआ। हम लोग रात में देर तक शैली और रुमानी कवियों के बारे में बात करते रहे।
कुछ देर बाद मेरे मित्र की पत्नी ने मुझ धन्यवाद दिया। मझे आश्चर्य हुआ और पूछा,
‘तुम मुझे क्यों धन्यवाद दे रही हो? धन्यवाद तो, मुझे तुम लोगों को देना चाहिये।’
उसने कहा,
‘हम दोनो अंग्रेजी पढ़ाते हैं। पढ़ाना, हमारे लिय उस दैनिक कार्य की तरह है जैसे दाल रोटी खाना, बस और कुछ नहीं। तुम्हारे द्वारा, शैली की उस पंक्ति का अर्थ पूछने पर, अन्य अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच इस विषय पर चर्चा हुई और एक अच्छी बहस हुई कि उस पंक्ति का क्या अर्थ है। हमने तुम्हारे सवाल के जवाब पाने के लिये कई सुनहरे पल बहस में गुजारे। यह सब इसलिये हुआ कि तुम्हें शैली के बारे में उतनी उत्सुकता है। यह धन्यवाद, हमें सुनहरे पल वापस देने के लिये है।’
मुझे गोवा यात्रा से हवाई जहाज पर लौटते समय, विमान परिचारिका की कही बात, ‘अंकल तो बच्चे हैं‘, याद आ गयी। जीवन में जिज्ञासू बनना, उत्सुक रहना, कुतूहल जताना तो बच्चों का काम है।
शायद जिंदादिली ही उत्सुकता का दूसरा नाम है और यही है, जीवन, जीने का दर्शन।
जीवन को दूसरे रूप में देखने की बात तो अनाड़ी फिल्म का यह गाना भी बताता है। यह गाना मुकेश ने गाया है और इसे राज कपूर पर फिल्माया गया है। इसका भी आनन्द लीजिये।
सांकेतिक शब्द
culture, Life, life, जीवन शैली, समाज, कैसे जियें, जीवन, दर्शन, दर्शन, जी भर कर जियो,
धर्म, धर्म- अध्यात्म,
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इससे पहले इसे कई अंशों में बार बार पढ़ चुका हूं लेकिन इस बार इसे पूरा पढ़ने में तो एक अलग अनिर्वचनीय अनुभव हुआ
आप ने सारी सामग्री को एक साथ रख कर इस का प्रभाव ही बदल दिया है। अब लगने लगा है कि चिट्ठियों के सम्पादित अंशों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा सकता है। तब वे रोचक भी होंगे और ज्ञान वर्धक भी।
[…] मेरी प्रिय कलाकारा थीं। मैंने ‘हमने जानी है रिश्तों में रमती खुशबू‘ श्रृंखला के अन्तर्गत, उनके बारे […]
मुझे बहुत पसंद आई आपकी ये post . आपने इतने सारे विचार इतनी अच्छी तरह से बांधे हैं की मन गदगद हो गया. देवनागरी में वैश्विक विचारों को पढना बहुत अच्छा लगा! ये यदा कदा ही होता है की Gregory peck और माता-पिता और यौन शिक्षा एक ही post में आ जाये. साधू!
आपके माता पिता के विचार प्रशंसनीय थे. बहुत अच्छा लगा उनके बारे में जानकर. मेरे दादाजी और दादीजी दोनों स्वतंत्रता सेनानी थे. वो दोनों भी ऐसी ही बातें हमे बताया करते थे. स्वाधीनता के बाद UP की High Politics में जाने का अवसर प्राप्त हुआ मेरे दादाजी को, किन्तु उन्होंने उसे ठुकरा दिया और किसान बन गए. घर पर हमेशा एक library ज़रूर रही जिसमे Tolstoy से लेकर shelly की किताबें हैं. आपकी post से वो सब यादें फिर ताज़ा हो गयीं
वाह साहेब.