कुछ समय पहले मुझे काम से चेन्नई जाना पड़ा। हमने पॉन्डचेरी का भी प्रोग्राम बना लिया। इस चिट्ठी में, इसी यात्रा का वर्णन है।

पॉन्डेचेरी समुद्र तट पर शाम
हो सकता है कि लैपटॉप के नीचे चाकू हो
होली के समय में उत्तर भारत में रहना, मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहता है। इस समय मैं हमेशा वहां से भागने की फिराक में रहता हूं। मैं पहले भी केरल, बंगलौर, गोवा की यात्रा इसी समय कर चुका हूं।
इस बार होली के समय, चेन्नई में एक सम्मेलन था। मुझे उसमें भाग लेना था। मुझे लगा कि होली के समय बाहर रहने का इससे अच्छा और कोई कारण नहीं हो सकता है। मैंने फौरन चेन्नई सम्मेलन में जाने का प्रोग्राम बनाया।
पॉन्डिचेरी, चेन्नई के पास है। मैं लगभग ४० वर्ष पहले वहां गया था। इसलिए वहां भी घूमने की बात तय की।
हम लोग सुबह दिल्ली ट्रेन से पहुंचे। यहीं से चेन्नई के लिए हवाई जहाज़ पकड़ना था। ट्रेन एवं हवाई जहाज़ के बीच में कोई तीन घण्टें का समय था। कुछ घबराहट सी लगी कि यदि ट्रेन देर से पहुंची तब हवाई जहाज़ न मिल पाए। लेकिन ट्रेन सही समय पर थी। हमें हवाई जहाज़ आसानी से मिल गया।
इस बार मैं अपने साथ लैपटॉप भी ले गया था। मुझे बोलना भी था और लैपटॉप में अपना प्रस्तुतिकरण एवं लेख भी ठीक करना था। सुरक्षा की जांच के लिए जब अन्दर पहुंचा, तब सुरक्षा कर्मी ने पूछा।
‘क्या, इस बैग में लैपटॉप है?’
मैंने हामी भरी।
उसने कहा लैपटॉप निकाल लीजिए। आपका बैग पुन: सुरक्षा की दृष्टि से चेक किया जायेगा। मैंने लैपटॉप निकाला। उसने पुन: चेक किया। मैंने उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसका जवाब था,
‘हो सकता है आपके लैपटॉप के नीचे चाकू रखा हो। लैपटॉप के कारण, उसे देखा नहीं जा सकता है। इसलिए मैंने आपका लैपटॉप बाहर निकलवा कर पुन: चेक किया है।’
मैंने पूछा,
‘आपने लैपटॉप के अन्दर चेक नहीं किया है। यदि मैंने उसके अन्दर चाकू रखा हो तब क्या होगा।’
उसने मुस्कुरा कर कहा,
‘साहब हम लोगों की शक्ल देखकर पहचान लेते हैं।’
यदि यह बात थी तब लैपटॉप निकलवा कर चेक करने की क्या जरूरत थी? लेकिन, मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस मुस्करा कर आगे बढ़ गया।
हवाई यात्रा के दौरान मैंने लेख को पुन: सम्पादित किया। प्रस्तुतिकरण ठीक किया। हम लोग चेन्नई पहुंच गये।
चेन्नई में सम्मेलन तीन दिन बाद था। हम चेन्नई पहुंचते ही, टैक्सी लेकर पॉन्डिचेरी चले गये। चेन्नई से पॉन्डिचेरी के रास्ते में ही एक घड़ियाल फार्म और महाबलिपुरम पड़ता है। जाते समय हम लोग ने घड़ियाल फार्म और लौटते समय महाबलिपुरम जाने का प्रोग्राम बनाया।
कोबरा मेरे हाथ पर लिपट गया
चेनेई से पॉन्डिचेरी जाते समय, रास्ते में घड़ियाल फार्म पड़ता है। इसे रोमलस वेटिकर नाम के व्यक्ति ने शुरू किया है। यह मगर, घड़ियाल, और कछुऐ के संरक्षण के लिये बनाया गया है। हम लोग कोई ७-८ साल पहने चेन्नई आए थे तब हम लोग इसे देखने के लिए गये थे। इस बार भी पॉन्डेचेरी जाते समय, इसे देखने के लिये रुके।
फार्म के अन्दर जाने एवं कैमरा ले जाने का टिकट लगता है। हमने कैमरे के लिए भी टिकट लिया। यहां पर सांप का जहर भी निकाला जाता है। जब आप फार्म के अन्दर उस जगह जाते हैं तब पुनः अन्दर जाने और कैमरे के लिये टिकट लगता है। वहां पर टिकट बेचने वाले व्यक्ति ने पूछा,
‘क्या कैमरे से फोटो लेंगे?’
मैंने कहा कि कह नहीं सकता। उसने कहा कि यदि आप चित्र लें तो पैसे दे दीजियेगा। क्रॉकोडाइल फार्म में मैंने सांपों का चित्र लिया था। बाद में उस व्यक्ति को ढ़ूंढ कर टिकट के पैसे भी दिये।
वहां सपेरे समुदाय के लोगों की सहकारी समिति है। वे ही जंगलों से सांप पकड़ कर लाते हैं। एक बार सांप लाने पर उन्हें १००० रुपये मिलते हैं। एक सांप से चार हफ्तों में, चार बार, यानि हर हफ्ते एक बार जहर निकाला जाता है। उसके बाद वन विभाग वाले उसे वापस जंगल में छोड़ आते हैं। यह सांपों के संरक्षण का बेहतरीन तरीका है। इससे न केवल इस समुदाय के लोगों को पैसे कमाने का मौका मिलता है, ब्लकि आय का साधन होने के कारण वे सांपों की रक्षा भी करते हैं।
इस जहर को एक मशीन में रखा जाता है। वह गोल, गोल तेजी से घूमती जाती है तब अपकेन्द्री बल (सेन्टीफयूगल फ़ोर्स Centrifugal force) के कारण उसकी गंदगी दूर हो जाती है और जहर साफ होता है। फिर उसे पाउड़र के रूप में परिवर्तित करके बेचते हैं। एक ग्राम जहर को १०,०००/-रूपये में बेचा जाता है। जहर से घोड़ों को टीका लगा कर जहरविनाशक दवा (anti-venom) तैयार किया जाता है।
इस बार वहां पर एक व्यक्ति ने मुझे कोबरा, करैत और रसल वाइपर नामक सांपों को दिखाया। इसके अलावा एक छोटा सा सांप और था। जिसका नाम मुझे ठीक से याद नहीं है। उसने हमें एक सांप का जहर निकाल कर भी दिखाया। उसने बताया,
‘सबसे ज्यादा ज़हरीला करैत है। यदि वह किसी व्यक्ति को काट ले तो वह एक घंटे में मर सकता है, रसल वाइपर के कटाने के बाद तीन घंटे में, कोबरा के काटने पर चार घंटे में तथा चौथा जो छोटे-छोटे सांप थे उनके काटने पर दो दिन में व्यक्ति मर सकता है।’
पिछली बार जब मैं यहां आया था तो बिच्छू भी थे।
‘मैंने पूछा कि बिच्छू कहां हैं?’
उसका कहना था कि,
‘बिच्छूओं का जहर नहीं बिकता है। इसलिये उन्हें अब न रखा जाता है न ही उनका जहर निकाला जाता है।’
पिछली बार, वहां पर उस समुदाय की महिलायें भी थीं जो सांपों को पकड़ कर लाती हैं। उसमें से एक ने हमें दिखाया था कि कैसे सांप पकड़े जाते हैं। उसने कोबरा को जमीन में छोड़ दिया और फिर दो मुंही लकड़ी से सांप का मुंह दाब कर, उसे आसानी से बिना डरे पकड़ लिया।
उसके बाद वह उसे मुझे दिखाने के लिये मेरे पास लायी। कोबरे का बाकी शरीर मेरे हाथ पर लिपट गया। महिला ने उसका मुंह पकड़ रखा था जिससे मुझे कुछ न हो, पर फिर भी 😦 डर के मारे, मेरी हालत खराब हो गयी।
बहुत शर्म आयी, एक तो वह महिला जो बिना परेशानी के उसका मुंख पकड़े थी और एक मैं जो उसके पूंछ के हाथ में लिपटने से डर रहा था। इस बार उस समुदाय की न तो कोई महिला थी न ही उस तरह का कोई अनुभव हुआ।
पिछली बार वहां पर अधिकारीगण, मगर और कछुओं के बच्चों को हाथ पर रखने और पकड़ने दे रहे थे। मुझे भी यह करने का मौका मिला था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो रहा था न ही इस तरह का मौका मिला।
इस जगह एक चित्र लगा है जिसमें लिखा है कि दुनिया का सबसे खतरनाक जन्तु। यह ढका हुआ है। इसे देखने के लिये आपको उस फ्रेम के पल्ले खलने पड़ेंगे। यदि आप इसके पल्लों को खोलें, तो इसके अन्दर कोई चित्र नहीं है केवल एक शीशा है। जिसमें आप अपना चित्र देख सकते हैं।
यह सच है कि मानव जाति ही, सबसे खतरनाक जन्तु है। हम दिन दूने, रात चौगुने होते जा रहे हैं। हम न केवल पर्यावरण को समाप्त कर रहे हैं पर जंगलों को काटते चले जा रहे हैं। इस कारण जानवरों के प्राकृतिक वास भी नष्ट होते जा रहे हैं। यदि हमने इसे रोका नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ी इन जानवरों को कभी नहीं देख पायेगी।
आजकल दूधो नहाओ और पूतो फलों का आशीर्वाद बेइमानी है। पृथ्वी मां तो, हमारे पास, वंशजों की धरोहर है। हमें उनके लिये इसे संभाल कर रखना है। दूधो नहाओ के शाब्दिक अर्थ का एक रूप, त्रिवेन्द्रम के आट्टूकल भगवती मन्दिर में, पोंगाला त्योहार में देखने को मिला। मेरे विचार से, आजकल ऐसे त्योहारों का कोई औचित्य नहीं है।
इस विडियो में सांप का जहर निकालते दिखाया गया है। लेकिन यह विडियो मैंने नहीं खींचा है।
घोड़ा डाक्टर, गायों और भैंसों की लात खाते थे
‘मैंने कोई ट्रेनिंग नहीं की है। पर मैं जब से बड़ी हुई मैं हमेशा ऐसी जगह काम करने को सोचती थी। मैं १३ साल से इसी जगह काम कर रही हूं। मैं घोड़ा डाक्टर बनना चाहती थी लेकिन मेरे मां बाप नहीं चाहते थे। क्योंकि हमारे खेतों में हमेशा घोड़ा डाक्टर आया करते थे। वह भैसों और गायों की लाते खाते थे। इसीलिए मेरे मां बाप इसे अच्छा पेशा नहीं समझते थे।’
इसे फार्म को रोमुलस व्हिटाकर ने शुरू किया था। मैं उनसे मिलना चाहता था। मैंने अकांक्षा से, उनके बारे में, पूछा। उसने कहा,
‘इस समय तो वे यहां नहीं है। उन्होंने न्यास के मैनेजर के रूप में अपना त्यागपत्र दे दिया है। लेकिन यह पार्क उन्हीं की देख रेख में चलता है। इस समय वे जंगलों में आपरेशन कोबरा किंग पर काम कर रहे हैं। इसमें जंगलों में कोबरा किंग के बच्चों को बचाने की बात है।’

किंग कोबरा – चित्र विकिपीडिया से
मुझे ख्याल आया कि मैंने टेड पर, व्हिटाकर का एक बेहतरीन व्याखान सुना था। जिसमें उन्होंने कोबरा किंग, घड़ियाल को बचाने के बारे में बताया था।
उन्होंने, उक्त व्याखान में बताया कि किस तरह से मादा कोबरा अपने अंड़ो को सेती है लेकिन बच्चा पैदा होने से पहले वह वहां से चल देती है क्योंकि किंग कोबरा सांपो को खाते है और उसे लगता है कि कहीं वह स्वयं अपने बच्चों को न खा जाए।
मेरी पत्नी शुभा ने पूछा,
‘क्या कोबरा किंग के बच्चे भी, अपनी रक्षा कर सकते हैं?’
उसने कहा,
‘हां। उनमें पैदा होते ही इतना जहर होता है कि उनके काटने से हाथी मर सकता है। इसलिए उन बच्चों को देखने की कोई जरूरत नही हैं।’
वहां से निकलने के बाद जब आगे चले तो कुछ भूख लगने लगी और रास्ते में एक मिडवे रेस्त्रां मिला और वहां पर रूक कर हम लोगों ने कुछ भोजन लिया। शाम होते होते हम लोग पॉन्डिचेरी पहुंचे।
यदि आपने टेड पर रोमुलस व्हिटाकर का व्याख्यान नहीं सुना है तब उसे नीचे अवश्य सुने।
पॉन्डेचेरी फ्रांसीसी कॉलोनी थी

रात में, पॉन्डेचेरी का समुद्र तट
आज़ादी मिलने से पहले, भारत में पांच अलग अलग जगहों पर फ्रांसीसी राज्य था – केरैकल (Karaikal), यनम (Yanam), माहे (Mahe), चन्द्र नगर, और पॉन्डिचेरी। ये जगहें एक दूसरे से मिले हुए नहीं थे।
चन्द्र नगर कलकत्ता के पास था। १९४८ में ही यहां के लोगों ने भारत के साथ रहना स्वीकार किया और इसे पश्चिम बंगाल के साथ ही जोड़ दिया गया।
बाकी चार जगहों का संचालन फ्रांस के पास ही रहा। १९५४ में, भारत सरकार का फ्रांसीसी सरकार के साथ अनुबंध हो गया और यह जगहें तथ्यत: (de facto) रूप में, हमारे साथ जुड़ गयीं। लेकिन क़ानूनी तौर (De jure) पर नहीं जुड़ी थीं।
१६ अगस्त १९६२ को, यह जगहें कानूनी तौर से भारत से जुड़ गयीं और इन चारों जगहों को मिलाकर पॉन्डिचेरी यूनियन ट्रेरिटरी बनाई गयी। यहां से लोक सभा की एक और राज्य सभा में एक सीट है। इसमें कुल ३० विधायक हैं। यह ३० विधायक, चारों जगहों पर यह इस प्रकार बटें हैं ―
- केरैकल तमिलनाडु से घिरी हुई जगह है और पॉन्डिचेरी से लगभग १६५ किमी दूर है। यहां से पांच विधायक आते हैं;
- यमन आंध्रप्रदेश से घिरी हुई जगह है। यह पॉन्डिचेरी से लगभग एक हजार किमी दूर है और यहां से एक विधायक की सीट है;
- माहे, केरल से घिरा हुआ राज्य है और पॉन्डिचेरी से ७०० किमी दूर है और यहां विधायको की दो सीटें है;
- बाकी सारे पॉन्डिचेरी से आते हैं।
शाम सुहानी लग रही थी

गेस्ट हाउस के कमरे से देर शाम का दृश्य
पॉन्डिचेरी में हम लोगों का आरक्षण अरविन्दो आश्रम के गेस्ट हाउस में था। इनके दो गेस्ट हाउस हैं – न्यू गेस्ट हाउस और पार्क ऍवन्यू। हम लोग पहले, न्यू गेस्ट हाउस में गये। वहां हमें बताया गया कि हम लोग पार्क ऍवेन्यू जाए।
न्यू गेस्ट हाउस पर खाने की सुविधा है और पार्क ऍवन्यू गेस्ट हाउस में इस तरह की सुविधा नहीं है। हमें लगा कि यदि हम न्यू गेस्ट हाउस में ठहरते तो अच्छा था। लेकिन हम गलत थे।
पार्क ऍवन्यू गेस्ट हाउस बहुत ही सुन्दर है। समुद्र के बगल में है और इसमें हम लोगों का सबसे ऊँचे मंज़िल के कमरे में ठहरने का इंतज़ाम था। हमें लगा कि ऊपर के कमरे में क्यों ठहराया गया क्योंकि वहां लिफ्ट नहीं थी पर कमरे में पहुंच कर लगा कि ऊपर के मंज़िल के ही कमरे ही सबसे अच्छे हैं। नीचे के कमरे में सामने पेड़ पड़ते हैं। जिसमें कमरे के बाहर के बरामदे से समुद्र नहीं दिखायी पड़ता।
ऊपर से बाहर का दृश्य सुन्दर था। चन्द्रमा निकल आया था, समुद्र हिलोरें मार रहा था और शाम बहुत ही सुहानी लग रही थी और लहरों की आवाज़ हम लोगों के कानों में गूँज रही थी। मुझे लगा कि यहीं रूकना सबसे अच्छा था।
पॉन्डिचेरी की सबसे अच्छी बात यह है कि यहां लोग साइकिल पर चल रहे थे। गेस्ट हाउस में बहुत सारी साइकिलें थी। मुझे लगा कि कुछ दिन मैं यहां पर साइकिल से सैर करूँ।

गेस्ट हाउस के कमरे से बाहर का दृश्य
महिलाएं बेवकूफ़ बन रही हैं
पॉन्डिचेरी फ्रांसीसी कॉलोनी थी। इसलिए यहां फ्रांसीसी भाषा का चलन है। यहां के रेस्त्रां का फ्रांसीसी खाना भी प्रसिद्ध है। हम लोग पहले दिन फ्रांसीसी खाना खाने, यहां के रांडवू (Rendezvous) नामक रेस्त्रां में गये।
रांडवू रेस्त्रां में, हम लोगों ने खाने में, ग्रिल्ड ब्लैक्ड पॉम्फ्रेट (Grilled blacked Pomfret), ग्रिल्ड सियर फिश (Grilled Sear fish), मशरूम प्रोन किश (Mushroom Prawn Quiche) लिया। इनमें ग्रिल्ड पॉम्फ्रेट और मशरूम प्रोन किश तो बिल्कुल बेकार लगा। हम उसे न खा सके। वह व्यर्थ हो गया।
हम लोग वहां पर, दूसरी रात में एक दूसरे रेस्त्रां में ‘ला क्लब’ (Le club) खाने गये। यहां पर हमने सियर फिश फ्रेंच स्टाइल (Sear fish french style), प्रोन्स् कैरिबिएन स्टाइल (Prawns Caribbean style) ली। इसके साथ हमने स्ट्रोबेरी कोलाडा (Strawberry colada) और सी ग्रीन (Sea green) नाम की मॉकटेल भी ली। यह कुछ पसंद आयी। खाना भी अच्छा था।
‘ला क्लब’ में कुछ अजीब बात लगी। यहां पर बहुत से विदेशी लोग थे। सारी महिलाएं लगातार सिग्रेट पी रही थी। हालांकि सब पुरूष बिलकुल या नहीं के बराबर सिग्रेट पी रहे थे। मेरे विचार से, सिग्रेट पीना न केवल नुकसान देय है पर यह भी दर्शाता है कि वह व्यक्ति कितना असुरक्षित एवं निराश है।
यह रेस्त्रां एक खुली जगह पर था। फिर भी, वहां सिगरेट की बदबू के कारण बैठना मुश्किल हो रहा था। मेरे बगल के मेज़ पर दो महिलाएं बैठी थी। हम लोग जितनी देर तक खाने का इन्तेजार किया और खाना खाया उतनी देर में इन महिलाओं ने कम से कम चार-चार सिगरेटें अवश्य पी होंगी। उनकी सिगरेट कुछ अजीब और खास तरह की लगी। वे साधारण सिगरेट से पतली और लम्बी थी। इसका भी कुछ कारण लगा।
महिलाओं ने, शायद सिगरेट इसलिये पीना शुरू किया कि वे पुरूषों की नकल करना चाहती थीं और इसे शायद महिला सशक्तिकरण की तरह देखती थीं। इसीलिए सिगरेट बनाने वाली कम्पनियां उन्हें आकर्षित करने के लिए अलग तरह की सिगरेट एवं विज्ञापन बनाने लगीं ताकि उनकी बिक्री बढ़ सके। बहुत सी महिलाएं, खास तौर से युवतियां, उनके झांसे में आकर बेवकूफ़ बन रही हैं। हांलाकि यह बात पुरुषों एवं नवयूवकों के लिये भी सच है।

महिलाओं को आकर्षित करने के लिये सिग्रेट कम्पनी का एक पुराना विज्ञापन। चित्र – यहां से, जहां इस तरह के अन्य विज्ञापनों के चित्र हैं।
पैंतालिस मिनट में, पांच हजार लोगों का खाना

श्री अरविन्दो का चित्र विकिपीडिया से
श्री अरविन्दो (जन्म १५-८१८७२ – मृत्यु ५-१२-१९५०) ने, पॉन्डेचेरी में आश्रम की स्थापना, २४ नवम्बर १९२४ में की। यह एक न्यास है। इसके पास, पॉन्डिचेरी में सम्पत्ति और खेत हैं। इन्हें साधक लोग देखते है। वे, खेतों में, खेती भी करते हैं।
पॉन्डिचेरी में लगभग एक हजार साधक रहते हैं। उनकी आवश्यक्ताओं को न्यास पूरा करता है। न्यास उनके रहने के लिये जगह और खाने का इन्तज़ाम करता है। उन्हें न्यास कपड़े और साइकिलें मिली हुई है। साधकों की जरूरतें, पूरा करने के लिए अलग अलग विभाग है। जिनहें साधक ही देखते हैं। जिनको ज्यादा देखभाल करनी पड़ती है उन्हें न्यास की तरफ से स्कूटर भी मिला है। उसके पेट्रोल का ख़र्चा भी न्यास उठाता है।
हम लोग, एक दिन दोपहर का खाना खाने के लिए, इनके भोजनालय में गये। खाने में ब्राउन ब्रेड थी। यह आंटे की बनी थी। यह भी इन्हीं की बेकरी में बनी हुई थी। इसके साथ चावल, दाल और एक सब्जी और मीठा आचार था। यह सब खाना वहीं पर बना हुआ था। खाने में मसाला नहीं था नमक कम था और खाना बिल्कुल सादा था। खाना खाने के बाद स्वीट डिश में केले थे।
वहां बर्तन धोने की जगह थी। बर्तन धोने के लिये वहां साधक थे। जो उन बर्तनों को धो रहे थे और कुछ साधक उन बर्तनों को पोंछ रहे थे।

आश्रम का भोजनालय। चित्र यूथ हॉस्टेल पॉन्डेचेरी की वेबसाइट के सौजन्य से।
हम रसोई घर को भी देखने के लिए गये। यह आधुनिक था। वहां ४५ मिनट में, पांच हजार लोगों का खाना बन सकता है। वहां पर दो बड़े सिलिंडर थे। इनमें डीज़ल से पानी को गर्म करके भाप बनाईं जाती है। भाप को अलग अलग बर्तनों में ले जाया जाता है। वहां पर बड़े-बड़े हान्ड़ें थे और इसके बाहर की सतह खोखली थी जिसमें भाप दौड़ती थी और उसकी गर्मी के कारण दाल या सब्जी बनती थी। चावल बनाने के लिए वहां कुकर था जिसमें बड़ी-बड़ी ट्रे को अन्दर रखकर ऊपर से बंद कर भाप निकालते है। जिससे चावल बन सकता है।
इस तरह से खाना बनने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि जो व्यक्ति खाना बनाता है उसके शरीर पर भाप नहीं लगती है। वह न तो गर्मी से परेशान होता है और न ही उसे पसीना आता है। साधक खाना बनाकर अपने काम पर जा सकते हैं।
यह स्कूल अनूठा है
विद्यालय के स्नातक छात्र, चोल वंश के राजा द्वारा स्थापित वृहद मन्दिर के, शैक्षिक भ्रमण पर
अरविन्दो आश्रम का स्कूल केजी स्तर से शुरू होकर विश्वविद्यालय स्तर तक का है। यह एक अनूठा स्कूल है। इसमें करीब चार सौ बच्चे है और पढ़ाने वाले करीब २५० लोग यानी दो विद्यार्थी के ऊपर एक अध्यापक। मुझे यह भी बताया गया कि कभी-कभी ऎसा भी होता है कि पढ़ाने वाले ज्यादा होते हैं और पढ़ने वाले कम। इस स्कूल में कोई भी परीक्षा नहीं होती है। विद्यार्थियों को इस बात की स्वतंत्रता रहती है कि वह क्या और किससे पढ़ना चाहता है। वह इस बात का चुनाव कर सकते है। यहां पर कोई डिग्री नहीं मिलती है। यह इसकी सबसे बड़ी कमी है।
मैं इनके स्कूल को भी देखने गया वहां पर देखा कि अलग अलग जगहों पर लड़के बैठे हुए थे और पढ़ाई कर रहे थे कुछ लाइब्रेरी में थे। छोटे बच्चों के लिए नियमित क्लास भी चल रही थी। इसमें ९-१० बच्चे थे। वहां का वातावरण भी मुझे अच्छा लगा।
१९६० के दशक में यूजीसी ने एक राजाज्ञा जारी की थी जिसमें यह लिखा था कि जिन बच्चों को यह स्कूल प्रमाणित कर देगा, वे यूनियन पब्लिक सर्विस की परीक्षा में बैठ सकते हैं। यानी कि वह कम से कम स्नातक के डिग्री के बराबर है। इस राजाज्ञा को मानकर कुछ विश्वविद्यालय इस सर्टिफ़िकेट को स्नातक की डिग्री मान लेते हैं और मास्टर डिग्री में पढ़ने के लिए अनुमति दे देते है। लेकिन कुछ विश्वविद्यालय इसे नहीं भी मानते है। यह ज़रूर इस विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए मुश्किल की बात होगी। हालांकि, यहां पर पढ़ाई करने का तरीका पसंद आया।
मैं स्वयं इस तरह के विश्वविद्यालय में पढ़ना चाहता या मुन्ने को पढ़ने के लिए भेजता। लेकिन चूंकि डिग्री नहीं मिलती है। इसलिए शायद इतना बड़ा जोखिम न लेता।
यह सच है कि शिक्षा प्राप्त कर भी लोग बेकार हो जाते है और बिना शिक्षा प्राप्त किये लोग जीवन में उठ जाते है। बिल गेट्स, स्टीफ़न जॉबस् के पास विश्वविद्यालय की कोई डिग्री नहीं है। फिर भी वे दुनिया के सफलतम व्यक्तियों में से हैं। यह भी सच है कि इस स्कूल के पढ़े हुए पुराने छात्र अच्छा कर रहे हैं। लेकिन, यह अपने आप में प्रश्न है कि यदि आपके पास डिग्री न हो, तब एक आम व्यक्ति अपने देश में क्या कर पायेगा?
यह चित्र शौम्मो सेनगुप्ता की पिकासा वेबसाइट के सौजन्य से है।
शिव ने पार्वती को चूम लिया
बृहद ईश्वर मन्दिर – चित्र विकिपीडिया से
दक्षिण में चोल राजवंश ने ९वीं से १४वीं शताब्दी तक राज्य किया। ११वीं शताब्दी की शुरुवात में, राजेन्द्र चोल-I (१०१२-१०४४ ईसवी) ने वृहद ईश्वर मंदिर का निर्माण किया। इस मंदिर का निर्माण, पाला राजवंश पर जीत के स्मरणोत्सव के रूप में किया गया है। यह मंदिर शिव भगवान को अर्पित है। इसे, युनेस्को के द्वारा, विश्व धरोहर स्थान का दर्जा दिया गया है।
इस मंदिर के बाहर की तरफ, कई तरह की मूर्तियां हैं। इनमें से एक मूर्ति, गणेश जी की, नृत्य करते हुए है। इसकी कथा कुछ इस प्रकार की है
एक बार गणेश जी को, एक तरफ से पार्वती और एक तरफ से शिव, चूम रहे थे। गणेश जी नीचे बैठ गये। इस कारण, शिव और पार्वती ने एक दूसरे को चूम लिया। इस बात पर प्रसन्न होकर, गणेश जी नृत्य करने लगे। इस मूर्ति में यही दर्शाया गया है। यह मूर्ति, देवताओं में, मानवीय गुणों को बताती है।
अर्ध-नारीश्वर
एक अन्य मूर्ति थी जिसमें कुछ अर्द्व नारीश्वर का रूप दिया गया है। इसमे आधा नर और आधा नारी का रूप दिखाया गया है।
लिंग केवल स्त्री और पुरूष में नहीं बाँटा जा सकता है। कुछ लोग बीच के हैं। मेरे विचार से, अर्ध-नारीश्वर की कल्पना, इस तरह के लोगों को समाज में मान्यता देने के लिए, की गयी है। इस तरह की चर्चा, मैंने अपनी चिट्ठी Trans-gendered – सेक्स परिवर्तित पुरुष या स्त्री में भी की है।
इस मंदिर में रोज़ ऊपर जाने की अनुमति नहीं होती थी। लेकिन उस दिन श्री अरबिन्दो आश्रम के स्कूल के बच्चे आये थे। उनके लिए खास अनुमति थी। जिसके कारण हम लोग भी, मंदिर के ऊपर जा सके।
वहां पर लोगों ने बताया कि मंदिर पूजा करने का ही स्थान नहीं होता था। वहां पर बहुत कुछ अन्य कार्य भी किया जाता था। ऊपर से दूर तक दिखाई पड़ता था। यह इसलिए था कि यदि बाहर से कोई आक्रमण हो तो वह दिखाई पड़ सके।
आश्रम विद्यालय के छात्रों को, उनके गुरुदेव समझाते हुऐ
भगवान शिव को नटराज भी कहा जाता है और शायद इसीलिए कहा जाता है कि वह नाट्य शास्त्र के गुरू है और इसकी कथा भी कुछ इस तरह बतायी गयी।
कुछ ऋषि थे। लेकिन वे अच्छे नहीं थे। भगवान शिव और विष्णु को लगा कि इन्हें समाप्त किया जाना चाहिए। भगवान विष्णु ने एक मोहनी का स्वरूप रखा और भगवान शिव ने एक शिकारी का रूप रख कर वहां पहुंचे। मोहिनी पर, ऋषि लोग मोहित हो गये और उनकी पत्नियां शिकारी पर।
बाद में, ऋषियों को पता चला यह लोग धोखा दे रहे हैं। तब वे लोग, इन दोनों को मारने के लिए, एक यज्ञ कर उसमें अपनी शक्ति डाली। इस पर उसमें से एक बाघ निकला। कहा जाता है कि जब वह भगवान शिव की तरफ बढ़ा तब उन्होंने उसकी गर्दन पकड़ कर मरोड़ दी और उसकी खाल निकाल कर पहन ली।
जब उनका पहला प्रयत्न विफल हो गया तब उसके बाद उन्होंने दूसरे प्रयत्न में, अपनी शक्ति से, सांप निकाले। शिव जी उन्हें पकड़कर अपने गले में डाल लिया।
नटराज की मूर्ति
तीसरी बार, यज्ञ से एक छोटा सा बौना दानव निकला। वह अंधा था। जब वह शिव जी के पास मारने के लिए आया तो शिवजी ने उसको पैर रख कर दबा दिया और प्रसन्न कर और नृत्य करने लगें। उस समय भारत मुनि उपस्थित थे। उन्होंने उसका वर्णन किया और तभी नृत्य शास्त्र का जन्म हुआ।
वास्तव में जो यह नटराज की मूर्ति नृत्य करते हुए है। यह एक प्रकृति की सृजन एवं विनाश को बताती है कि किस तरह से इस सृष्टि की रचना और उसका अंत। इसके बारे में कार्ल सेगन ने अपनी टीवी श्रृंखला में बताया है। इसकी चर्चा मैंने, डार्विन की श्रृंखला की इस कड़ी में की है।
हम लोग जब गंगई कोंडा चोलापुरम गये थे तो वहां पर कोई भी ढ़ंग का शौचालय नहीं था। वहां पर बहुत सारे विदेशी पर्यटक और अपने देश के पर्यटक जाते हैं। यदि साफ सुथरा शौचालय होगा तब पर्यटन को अधिक बढ़ावा मिलेगा।
मेरे विचार से, साफ सुथरा शौचालय का निर्माण बहुत आसानी से हो सकता है। वहां पर पंचायतें हैं। उन्हें पंचायत निधि भी मिलती है। इस निधि से इसका आसानी से निर्माण किया जा सकता है। हमने वहां के प्रधान को यह सलाह दी। उसने हमसे वायदा किया गया कि वह ऐसा ही करेगा। आप जब कभी जायें तो हो सकता है कि आपको वहां साफ सुथरा शौचालय भी मिले। इस तरह की, सलाह हमने कुफरी में भी दी थी।
अरबिन्दो के संपर्क के आने से पहले, मां की शादी हो चुकी थी
अरविन्दो आश्रम की कल्पना और स्थापना श्री अरविन्द द्वारा की गयी है। इस आश्रम की मुख्य इमारत में श्री अरविन्द की समाधि है। इस इमारत के अन्दर बहुत सारे गमलों में बहुत सुन्दर फूल रखे हुए थे और यह जगह देखने में बहुत अच्छी है। समाधि भी फूलों से खूब सजी हुई थी। उसमें लिखा एक तरफ अंग्रेजी में और एक तरफ फ़्रेंच भाषा में लिखा हुआ था हुआ था कि अरविन्दो ९ दिसम्बर १९५० को उनके बीच से चले गये।

यह चित्र श्री अरबिन्दो आश्रम की वेबसाइट के सौजन्य से।
समाधि पर जाने का कोई समय नहीं है और कोई भी व्यक्ति जब जाना चाहे तब जाकर अपना समय व्यतीत कर सकता है। वहां पर मौन रखना आवश्यक है। हम लोग पहुंचे तो बहुत से लोग समाधि पर नत मस्तक थे और कुछ बैठे हुए थे। हम लोगों ने समाधि का एक चक्कर लगाया और उसके बाद वापस चल दिए।

मां का चित्र विकिपीडिया से
मां फ्रांसीसी महिला थी। उनका पहले नाम मिर्रा अल्फास़ा (Mirra Alfassa) बाद में मिर्रा मॉरिस़ेट (Mirra Morisset) और मिर्रा रिचार्ड (Mirra Richard) हो गया था।
मां का जन्म २१ फरवरी १८७८ में तथा मृत्य १७ नवम्बर १९७३ में हुई। श्री अरबिन्दो के संपर्क के आने से पहले से उनकी शादी हो चुकी थी और उनका एक पुत्र था।
मां को सपने में एक आध्यात्मिक पुरूष नज़र आये। जिनकी उन्हें तलाश थी। उनके पति की जब पॉन्डिचेरी में पोस्टिंग हुई तब उनकी मुलाकात श्री अरविन्द से हुई। उन्होंने फ्रांस वापस जाकर अपनी पत्नी को उनके बारे में बताया कि उनकी मुलाकात उस व्यक्ति से हुई है जिसकी उन्हें तलाश है। तब मां श्री अरविन्दो के सम्पर्क में आयीं और यहीं रह गयी।
मां का पुत्र और उनकी पोती ही मां के साथ पॉन्डिचेरी में रहे। मां की दो पर -पोतियां भी हैं जिन्होंने अपनी शिक्षा वहीं पर पॉन्डिचेरी में इस अरविन्दो आश्रम के स्कूल में पूरी की। वे आती जाती रहती हैं लेकिन वहां पर रहती नहीं हैं।
मातृमन्दिर, ऑरोविल की आत्मा है
श्री अरविन्दों के विचार को एक समाजिक रूप दिए जाने के लिये, मां ने ऑरोविल की कल्पना की, और रूप प्रदान किया। यह एक अन्तर-राष्ट्रीय रहने की जगह है।

मातृमंदिर और बरगद का पेड़
ऑरोविल के मध्य में मातृमंदिर है। यह, मां के अनुसार, ऑरोविल की आत्मा है। इसका निर्माण फरवरी १९७१ में आरंभ हुआ। यह बहुत बड़ा सा ग्लोब है। जिसके ऊपर एक गोल्डन डिश लगी हुई है और डिश में भी सोने की चिप्स लगे हुए हैं। यह शायद इसलिए लगाये गये है कि हमेशा मंदिरों में सोने की चीज ही जड़ी जाती है और सोना एक धातु भी है। इसलिए इसका यहां पर प्रयोग किया गया है।
मातृमंदिर का भीतरी कक्ष ‘मौन ध्यान केन्द्र’ पूरा हो चुका है किन्तु इमारत का शेष भाग और चतुर्दिक बगीचों का निर्माण कार्य अभी चल रहा है।
जब हम लोग वहां पहुंचे तब वहां पर इग्लैंड से आये डीन नामक व्यक्ति से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि मातृ मन्दिर के अन्दर किस तरह से जाना होगा और किस तरह से व्यवहार करना है। मातृ मंदिर के अन्दर १०-१५ मिनट तक रहा जा सकता है इस समय एकदम शांत रहना पड़ता है। वहां पर आवाज़ नहीं हो सकती है। क्योंकि मां का कहना था
‘जब आप परेशान हों तब दिमाग को इधर उधर दौड़ाने के बजाय, शांत रहना अच्छा है। ताकि दिमाग शान्त रहे। इससे समस्या का हल आसानी से निकलता है। दिमाग को शांत करने के लिए सबसे पहला काम यह है कि आप बिल्कुल बोले नहीं।’
इसी बात का परीक्षण मंदिर के अन्दर और बाहर किया जा रहा है।
वहां पर लोग धीरे धीरे बोल रहे थे। डीन ने अंत में बताया,
‘लोग यह समझते है कि यह मां का मंदिर है मगर यह बात नही है क्योंकि यह कोई मंदिर नहीं है और यह शांति की जगह है।’
अन्दर जाने से पहले, चप्पलें बाहर रखनी पड़ी। यह सफेद संगमरमर का बना हुआ है। चिन्तन कक्ष जाने के रास्ते में सफेद रंग की कालीन बिछी थी। उस पर चलने से पहले हम लोगों को सफेद रंग के साफ मोज़ा पहनना पड़ा।
मन्दिर के अन्दर ऊपर थोड़ी सी खुली हुई जगह थी। जहां से सूरज से रोशनी आ रही थी और वहां पर कुछ पेनल लगे हुए हैं जो कि कंप्यूटर के द्वारा चलते हैं। वे सूरज की किरणों को एक स्तम्भ के रूप में डाल रहा थे यह रोशनी का स्तम्भ,गेंद पर एक बहुत बड़ी कांच की गेंद पर गिर रहा था। यह गेंद जर्मनी से गेक लेंस बनाने की एक कम्पनी ने बना कर भेजी थी। यह जिस समय बनायी गयी थी उस समय यह दुनिया की सबसे बड़ी क्रिस्टल गेंद थी।
वहां पर हम लोग चुपचाप बैठे रहे। अधिकतर लोग पद्मासन में या पलती मार कर बैठे थे। एक महिला व्रजासन में भी बैठी थी। कुछ लोग जो इस तरह से न बैठ सकते थे वे पैर आगे कर के बैठे थे। १२-१३ मिनट के बाद दो बार रोशनी चमकी इसका मतलब यह हुआ कि आप बाहर निकल आयें।
हम लोग बाहर आये वहां पर एक बरगद का बहुत बड़ा पेड़ है और वहां पर भी गये जिनकी जड़े नीचे थे वहां पर लोग बरगद को पकड़कर और उसमें सिर छिपाये हुए थे। वहां पर कुछ अजीब सा लगा। शायद मौन का अपना महत्व है जैसा कि यहां और यहां बताया गया हैं। उसके बाद हम लोग वापस चल दिए।
यदि यह मां का मंदिर नहीं है तो कम से कम मां के द्वारा बनवाया गया है मंदिर है क्योंकि डीन के मुताबिक वहां पर जो भी है वह मां के निर्देशन पर ही बनाया गया है।
ऑरोविल की सबसे अच्छी बात – इसकी हरियाली

हरा भरा ऑरोविल
सन् १९८८ में संसद द्वारा पारित एक ऎक्ट द्वारा ऑरोविल सम्पदा हेतु एक संचालक समिति का निर्माण किया गया, जिसका नाम ‘द ऑरोविल फाउण्डेशन’ रखा गया,इसके साथ ही एक विशेष वैधानिक मानदण्ड की स्थापना की गई है जो मां के द्वारा देखे गये ऑरोविल के आदर्श रूप की स्थापना कर सके।
कुछ वर्षों में ऑरोविल समुदाय के अन्दर एक निजि व्यवस्था स्थापित हो गयी है, मां के परामर्श को ध्यान में रखते हुए कि यह प्रयोग बहुत अधिक नियम-कायदों में जकड़ा हुआ नहीं होना चाहिए, इस का संचालन कई दलों के हाथ में है। समुदाय के महत्वपूर्ण निर्णय निवासियों की सामूहिक सभा में लिए जाते हैं, जिसमें १८ और उससे अधिक उम्र के सभी सदस्यों को शामिल किया जाता है।

जर्मन बेकरी जहां से हमने केक लिया
मुझे वहां रहने वालो का जीवन-दर्शन समझ में नहीं आया। कुछ विस्तार से जानने की बात की तो पता चला कि इनमें कोई ४० देशों के लोग रहते हैं। कुछ ने अपना काम- धंधा वहीं पर शुरू कर दिया है। लेकिन अधितर लोग कोई काम-धंधा नहीं करते हैं। उन्हें केवल वहां रहने के लिए कुछ खास भत्ता दिया जा रहा है जो कि ऑरोविल फ़ाउंडेशन देता है। इसमें बहुत कुछ सहायता भारत सरकार भी देती है या विदेशों से जो दान आ रहा है। हो सकता है कि यह सूचना गलत हो। इसमें मुझे भी शक है। क्योंकि बिना काम किये, भत्ते पर जीवन व्यतीत करना, तो शायद मुश्किल है।
ऑरोविल की सबसे अच्छी बात है यहां के हरे भरे पेड़ हैं और वह भी एक ऐसी जमीन पर जो कि कभी बंजर थी।
मेरे मित्र ने, ऑरोविल में रांडवू (Rendezvous) रेस्त्रां में, खाना खाने का सुझाव दिया था। हम लोगों ने इसे ढूंढा तो पता चला कि यह सोमवार के दिन बंद रहता है। इसलिए वहां कुछ भी खा न सके। बाहर निकलते समय उनकी बेकरी से केक और कुछ बिस्कुट लिए और जिसको लेकर आ गये।
हमें बहुत पैसा मिल रहा है
चर्च का चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से
पॉन्डिचेरी में हम लोग कुछ उन बिल्डिंगों को भी देखा जिनको कि पुन: निर्मित किया गया है। इन्हें फ्रेंच बनावट में बनाया गया है ताकि पुराने समय का आकर्षण बना रहे।
हम लोग वहां पर एक खास चर्च, सेक्रेड हार्ट चर्च (Sacerd Heart Church) को भी देखने के लिए गये। इसकी इमारत बहुत भव्य है।
१८९५ में, मुख्य पादरी गांधी द्वारा, पॉन्डेचेरी को, जीज़स के पवित्र हृदय (Sacred Heart of Jesus) से प्रतिष्टित किया और वहां पर एक चर्च बनाने की इच्छा व्यक्त की।नेलीथोप के पुजारी, आदरणीय वेल्टर ने इसकी इमारत का नक्शा तैयार कर, इसका निर्माण १९०२ में शुरू किया। यह ५० मीटर लम्बा ४८ मीटर चौड़ा और १८ मीटर ऊंचा है।
इस चर्च के प्रवेश द्वार पर, लेटिन में, लिखा है,
‘I have consecrated this house, that my name may be there forever. My eyes and my heart will be there forever’
मैंने इस जगह को प्रतिष्टित किया है ताकि में रा नाम हमेशा रहे। मेरी आंखें और मेरा हृदय हमेशा यहां रहेगा।
इस चर्च के निर्माण के बाद इसमें पहली पूजा १ दिसंबर १९०७ में हुई।
यहां पर बहुत सी मूर्तियों का भारतीकरण हो गया है वहां पर मां मरियम की मूर्ति है जो कि साड़ी पहने है।
इस चर्च के के अन्दर टीवी लगा हुआ था। पूछने पर पता चला कि यहीं से, प्रतिदिन ईसाई धर्म का टेलीकास्ट, अनबोली टीवी चैनल के द्वारा कुछ घंटों के लिए किया जाता है। यह इंटरनेट पर २४ घण्टें देखा जा सकता है।
मैंने, वहां पर इस टीवी चैनल से जुड़े व्यक्तियों से बात की। वे बहुत ही उत्साहित थे और जोश से काम कर रहे थे। उनका कहना था,
‘इस चैनल को चलाने के लिए हमको बहुत पैसा मिल रहा है। स्वयं पॉन्डिचेरी से उनको तीन लाख रुपया प्रतिमाह मिल रहा है। विदेशों से जो पैसा मिल रहा है वह अलग से है और करोड़ों में है।’
किसी भी मज़हब से जुड़ी संस्था के लिये धन एकत्रित करना कोई मुश्किल बात नहीं है। शायद उनके जोश में रहने का यही कारण है।

चर्च के अन्दर का दृश्य
मैं आमिर खान हूं
पॉन्डिचेरी से लौटते समय हम लोग महाबलीपुरम देखने का कार्यक्रम बनाया। यहां पर ७ से ९वीं शताब्दि में पत्थरों पर बने हुऐ समारक चिन्ह हैं। इन्हें युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया है। इन्हें दिखाने के लिये, हम लोगों ने गाइड लिया, जिसका नाम लक्ष्मण था। उसने हम लोगों से तीन जगहें दिखाने के लिए २५०/-रूपया लिये।

हमारे गाइड लक्षमन हमें समुद्र के किनारे स्थित मन्दिर घुमाते हुऐ
लक्षमन ने बताया,
‘महाबलीपुरम में पत्थरों पर किया गया काम, पल्लव राजवंश के द्वारा किया गया है। पल्लवों की ईष्ट देवी काली हुआ करती थी। यह बली मांगती थी और इसीलिए इसका नाम महाबलीपुरम पड़ा।
यहां पर विदेशों से बहुत से पर्यटक आते हैं और सरकार को लगा कि महाबलीपुर शायद एक अच्छा नाम न हो। यहां पर पल्लव राजवंश के पहले राजा नरसिंह वर्मा थे। वे बहुत अच्छी कुश्ती करने वाले थे। इसीलिए इसका नाम मम्लापुरम कर दिया गया है।’
मैंने इस बारे में कुछ और जानने का प्रयत्न किया तो यह पता चला कि
- एक मिथक यह भी है कि इस जगह को महाबालि ने स्थापित किया इसलिये इसका नाम महाबालिपुरम पड़ा। हांलाकि, वहां पर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India) के द्वारा मिली पुस्तक में, इस बात को नकार दिया गया है;
- पल्लव हिन्दू थे और समय की रस्म के अनुसार अश्वमेध (अथार्त अशवों की बलि) एवं अन्य वैदिक बलि, जैसा कि यजुरवेद में है, दिया करते थे।
इससे तो लक्षमन की ही बात सही लगती है।
लक्ष्मण ने बताया कि कुछ समय पहले, यहां एक व्यक्ति आया था जिसको कि उसने पांचो रथ दिखाये थे। उसके बाद उस व्यक्ति ने पूछा कि क्या आप मुझे पहचानते है। लक्ष्मण ने कहा,
‘मैं तो नहीं पहचान पा रहा हूं पर आपका चेहरा कहीं देखा हुआ लगता है।’
इस पर तब उसने कहा,
‘मैं आमिर खांन हूं और यहां पर घूमने आया हूं’
लक्ष्मण ने यह भी बताया कि उन्होंने उसको एक अंगूठी भी दी जिसके बीच में यानी आमिर खांन लिखा है। इस अंगूठी को उसने दिखाया।
लक्ष्मण ने बताया,
‘फिल्म ‘थ्री इडिऎट’ के रिलीज़ होने पर, आमिर खान ने उन्हें और उनकी पत्नी को को बम्बई बुलाया था। आने जाने का टिकट का किराया भी दिया था और एक पांच स्टार होटल में ठहराया था। इसके बाद, सबके साथ, उन्होंने फिल्म भी देखी थी।’
इस फिल्म के बारे में मैंने अपनी हिमाचल यात्रा में चायल पैलेस का जिक्र ‘मेरे दिल में आज क्या है‘ नाम की कड़ी में चर्चा की थी, जहां इसका कुछ भाग फिल्माया गया था।
मैंने उनसे आमिर खांन के साथ चित्र दिखाने के बारे में बात की तो उनका कहना था चित्र नहीं है। इसलिए वह नहीं दिखा सकते हैं। लेकिन, यह बात सच लगती है क्योंकि जब मैंने इसके बारे में अन्तरजाल ढूंढ़ा तो कई जगह यह सूचना मिली कि आमिर खान थ्री इडिऎट का प्रचार करने के लिये कई जगह गये जिसमें एक जगह महाबलिपुरम भी थी जहां उनकी मुलाकात लक्षमन से हुई जो उन्हें नहीं पहचान पाये थे। आप भी इसे यहां पढ़ सकते हैं।
आज-तक का यह विडियो देखिये जिसमें यह खबर है।
हिन्दूओं ने भी मन्दिर तोड़े
हम अपने गाइड लक्षमन के साथ सबसे पहले पांच रथ़ मंदिर देखने गये। लक्षमन के अनुसार यह कोई मन्दिर नहीं हैं पर अलग अलग जगहों में मंदिर बनाने के लिये नमूने हैं। इसमें चार एक लाइन में हैं और पांचवां बगल में है। यह सारे अलग अलग पत्थर बना के एक जगह इकट्ठा नहीं किये गये हैं पर एक चट्टान पर बनाये गये हैं।

पांच रथ – महाबलिपुरम
लक्षमन के अनुसार,
- पहला दुर्गा जी का मन्दिर जिनका वाहन शेर है।,
- दूसरा, शंकर भगवान का है जिनका कि वाहन नंदी है।,
- तीसरा, भगवान विष्णु का है जिसमें विष्णु भगवान की मूर्ति है लेकिन लगता है जिस विष्णु भगवान शैय्या पर लेटे हो और पत्थर में कुछ कटा हुआ है लगता है कि उसमे शायद उनके वाहन गरूड़ बनाने की बात रही हो लेकिन वह बना नहीं है।
- चौथा सूर्य देवता का है। मैंने पूछा कि वह कैसे कहते है कि वह सूर्य देवता का है उसने एक मूर्ति दिखायी जिसमें लगता था कि चारो तरफ प्रकाश निकल रहा हो इसी से इसे वह सूर्य देवता का मन्दिर कह रहा था। नीचे पत्थरों को गाइड ने बताया कि शायद इसे घोड़ो में बदलना था लेकिन यह काम भी नहीं हो सका। ये चारों मंदिर एक लाइन में है।
- पांचवां, जो बगल में है वह एक हाथी है जो कि बहुत साफ दिखायी पड़ता है। लगता है कि यह ऐरावत है। इससे यह इन्द्र देव का मन्दिर लगता है।
यह मन्दिर बनाने के लिये नमूने थे इसलिये इन्हें प्रतिषठित नहीं किया गया था।
यह रथ, पांच पांडवों और द्रौपदी के नाम से जाने जाते हैं और उन्हीं के नाम से लोकप्रिय हैं। हांलाकि, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India) के द्वारा महाबलिपुरम पर प्रकाशित पुस्तक अनुसार, इनका महाभारत से कोई संबन्ध नहीं है। हमारे गाइड लक्षमन का भी यही कहना था।

पांच रथ महाबलिपुरम – दूसरी तरफ से दृश्य
यह सारे स्मारक या तो अधूरे हैं या फिर तोड़ दिये गये हैं। मैंने लक्षमन से जब यह सवाल पूछा कि ऐसा क्यों है तो उसका जवाब था,
‘नवीं शताब्दी में, पल्लवों का युद्व चोल राजवंश (Chola dynasty) के राजा से हुआ था। इसमें वे हार गये थे। विजयी राजा चाहते थे कि पल्लव राजवंश की सारी निशानी नष्ट हो जाय। इसलिये इन्हें तोड़ दिया गया। हांलाकि, वे भी हिन्दू थे।’
मुझे तो यही लगता था कि हिन्दओं ने कम से कम हिन्दू मन्दिर नहीं तोड़े पर यह सूचना तो इसे गलत साबित करती है। लगता है कि हिन्दुओं ने भी मन्दिर तोड़े। शायद, राज्य सत्ता को स्थापित करने के लिये, यह सब जायज़ हो या यह इस लिये किया गया हो कि इन्हें प्रतिष्ठित नहीं किया गया था एवं यह केवल मन्दिरों के नमूने थे।
भगवान को भी जलन होने लगी
आंग्ल यात्री जे गोल्डिंघम (J Goldingham), १७९८ में महाबलिपुरम आया था। उसने समुद्र के किनारे बसे इस शहर के बारे में लिखा है।
‘जहाज के नाविक, इस शहर को सात मेरु मन्दिर (Seven Pagodas) के नाम से जानते हैं जिसके छः मन्दिर समुद्र के अन्दर हैं और केवल एक मन्दिर समुद्र के किनारे बचा है।
मिथक है कि, यह शहर इतना सुन्दर था कि भगवान को भी जलन होने लगी और उन्होंने समुद्र में इतना बड़ा तूफान भेजा कि एक ही दिन में इसके छः मन्दिर समुद्र में डूब गये।’
समुद्र किनारे बचा हुआ मन्दिर, सी शोर टेंपल (Sea Shore temple) के नाम से प्रसिद्ध है। हम इसे भी देखने गये।

समुद्र किनारे मन्दिर
लक्ष्मण ने बताया,
‘यह ७ मंजिला मंदिर है जिसमें ६ मंदिर समुद्र के अन्दर और आगे १४ किलोमीटर तक हैं। इसमें डेढ़ किलोमीटर तक पल्लव राजा का राज महल है। ये सब पानी में डूबे हुए हैं। पहले इस मंदिर में भी एक या दो फिट पानी रहता था और जब समुद्र की लहरें ऊंची होती थीं तो यह पूरा मंदिर उसी में डूब जाता था। जिसके कारण मूर्तियां खराब हो रही थीं। लेकिन सरकार ने बांध बनवा दिया है जिसके कारण अब पानी नहीं आता है।
२००३ में इंग्लैण्ड से कुछ गोताखोर आये थे। उन्होंने पानी के अन्दर चित्र खींचे। जिससे पता चला कि वहां पर पानी के अन्दर राज महल है।’
लक्षमन के द्वारा बताया गया अन्वेषण, २००२ में हुआ था। इसके बारे में, बीबीसी की खबर यहां पढ़ सकते हैं।
२००४ में, सुनामी के दौरान, महाबलिपुरम में, कुछ समय के लिये समुद्र का पानी ५०० मीटर अन्दर चला गया था। उस समय, पर्यटकों और वहां रहने वालों ने, पानी में डूबे मन्दिरों को देखा। जब पानी वापस आया तो वे सब पानी के अन्दर चले गये। इसके बारे में आप यहां पढ़ सकते हैं।
सुनामी के बाद महाबलिपुरम में समुद्र के किनारे कुछ मुर्तियां बाहर निकल आयी हैं जो भी वहां पहले मन्दिरों के होने की पुष्टि करती हैं। इसके बारे में, आप आउटलुक का लेख लेख पढ़ सकते हैं और नीचे मूर्तियों का चित्र भी आउटलुक के उसी पेज से है।

सुनामी में बाहर निकली मूर्तियां – चित्र आउटलुक पत्रिका से
समुद्र के किनारे बचा हुआ मन्दिर, एक चट्ठान पर बना है। क्या मालुम बाकी छः मन्दिर रेत में बने हों और हज़ारों साल पहले सुनामी की तरह के तूफान में सब डूब गये हों। मन्दिरों के डूबने का मिथक, सदियों से चला आ रहा है और यह सच ही हो।
यहां से, बाहर निकलते समय सबसे अच्छी बात यह लगी कि यहां का शौचालय बहुत साफ सुथरा था जो किसी भी शौचालय को मात देता है। आवश्यक्ता इस बात की है कि हम इतने साफ शौचालय हर घूमने वाली जगहों पर बनाये।
सात हाथी मिलकर भी नहीं हिला सके
समुद्र किनारे मन्दिर के पास पांच गुफाऐं हैं पर यह पता नही चलता है कि यह किस लिए हैं। पर्यटकों ने इनको पांचों पांडव का नाम दे दिया। अब यह इसी नाम से जानी जाती हैं। हांलाकि, वहां पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India) के द्वारा मिली पुस्तक में, इन्हें पांडव गुफाओं के नाम से नहीं संदर्भित किया गया है।
इन गुफाओं में, कृष्ण लीला दिखायी गयी है। इन गुफाओं के बगल की चट्टानों पर, नक्काशी है। इसके बारे में अलग अलग कथायें प्रचलित हैं।

गुफाओं में कृष्ण-लीला
महाभारत में कथा है कि अर्जुन भगवान शिव की तपस्य कर पाशुपात अस्त्र पाया था। कुछ लोगों के अनुसार, इसमें यही दर्शाया गया है और वे इसे अर्जुन तपस्या कहते हैं। लेकिन इस कथा का महत्वपूर्ण भाग – शिव-अर्जुन युद्ध है। इस युद्ध में, भगवान शिव शिकारी का रूप धारण करते हैं। यह इस नक्काशी में नहीं है। इसलिये कुछ लोग इसे अर्जुन तपस्या नहीं मानते हैं।

अर्जुन या भगीरथ तपस्या
इस नक्काशी में, मुनि लोग तपस्या कर रहे हैं जो कि अक्सर नदी के पास होता है। इसलिये कुछ लोग, इसके बीच की जगह को पर्वत से नदी का नीचे आना कहते हैं। उनके मुताबिक यह भगीरथ तपस्या दर्शाता है कि वे किस तरह से तपस्या कर, गंगा जी को पृथ्वी पर लाये थे। हमारा गाइड लक्षमण इसे भगीरथ तपस्या ही बता रहा था।

गणेश रथ
इसी के बगल में एक गणेश रथ है।
गणेश रथ के बगल में एक बहुत गोल चट्टान अटकी सी खड़ी हुई है। इसका नाम कृष्ण मक्खन बताया गया। इसे देखने से लगता है कि जैसे कभी भी गिर सकती है। हमारे गाइड लक्षमन ने बताया,

कृष्ण-मक्खन
‘पल्लव राज्य में, एक बार सात हाथियों ने इसको नीचे ढकेल कर गिराने की कोशिश की पर यह हिली नहीं। यह एक तरह का अजूबा है और इसे सारे पर्यटक देखने आते है।’
वहां पर एक चट्टान पर एक अन्य चट्टान पर, भगवान विष्णु के अवतार की नक्काशी है। यहीं से लक्ष्मण गाइड ने हमसे बिदा ली।

भगवान विष्णु का वामन अवतार
टाइगरकेव – देवी दुर्गा का पुण्य स्थल
हमारे मित्रों ने, महाबलीपुरम में, मूनरेकर में खाने की सलाह दी थी। पांडव गुफायें देखने के बाद दोपहर के खाने का समय हो रहा था। हम लोग मूनरेकर जाकर, वहां पर दोपहर का खाना खाया। हम लोगों ने अपने खाने में ग्रिल्ड फिश मसाला डोसा के साथ उबली हुई सब्जियां लीं। यह खाना नये तरह का अनुभव रहा। इसके बाद हम लोग टाइगर-केव देखने के लिये निकले।
महाबलीपुरम-चेन्नई रास्ते पर, महाबलिपुरम से लगभग पांच किलोमीटर दूर, टाइगरकेव (Tiger cave) है। यह देवी दुर्गा का पुण्य स्थल है।
यह बेहद रमणीक जगह है और समुद्र तट के बगल में है। यहां बिलकुल भीड़ नहीं थी। इसलिये एकदम शान्ति थी। यहां घूमते समय समुद्र की लहरों की किल्लोल सुनायी पड़ रही थी। जिसने वातावरण को और आनन्दमय बना दिया था।
मुख्य नक्काशी की ड्योढ़ी पर पहुंचने के लिये, कुछ सीढियां हैं। उसके ऊपर दो भित्ती स्तंभ हैं जो कि शेरों की मूर्तियों के सहारे हैं। इस कक्ष के चारो ओर शेर-मुख बने हैं। इसके बगल के दो अन्य कक्ष पर हाथी-मुख बने हैं।
वहां एक अन्य चट्टान पर देवी दुर्गा को महिसासुर को वध करते हुए दिखाया गया है।
टाइगर केव से, चेन्नई तक का रास्ता भी बहुत सुन्दर है।
संगीतकार ऐ.आर. रहमान की सबसे बेहतरीन सुबह
ए.आर. रहमान संगीत के क्षेत्र में जाने माने व्यक्ति हैं। वे चेन्नई से आते हैं। उन्होने चेन्नई में के.एम. म्यूजिक कान्ज़रवेटरी (KM Music Conservatory) नाम से एक विद्यालय, ऎप्पल कम्पूटर के साथ मिल कर, खोला है। यह पाश्चात्य और भारतीय संगीत के साथ ऑडियो मीडिया एजूकेशन (Audio media education) के लिए है।
इस विद्यालय में, खास तौर से, पाश्चात्य संगीत वादनो को सिखाया जाता है। लेकिन यहां भारतीय पारम्परिक संगीत और स्थानीय वादनों की भी शिक्षा दी जाती है।
इस विद्यालय में, संगीत सीखने की कोई उम्र नहीं है। किसी भी उम्र के लोग यहां आ सकते हैं। इसमें लिये कोई भी शैक्षिक योग्यता की जरूरत नहीं है। लेकिन संगीत में रूचि होना जरूरी है। यह एक अनूठा स्कूल है और संगीत शिक्षा के क्षेत्र में एक नया आयाम खोलता है।
मेरा एक मित्र, इस विद्यालय में, संगीत सिखाता है। उसने हमें वहां आने का निमत्रण दिया। मुझे संगीत कम समझ में आता है पर लगा कि इस निमत्रण को स्वीकार कर वहां भी जाना चाहिये।
विद्यालय में, हमारे लिए विद्यार्थियों ने संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया – कुछ अंग्रेजी के गीत, और पाश्चात्य संगीत वादनो के कार्यक्रम। कार्यक्रम, मनभावन और संगीत, कर्णप्रिय था।
ए.आर. रहमान के स्कूल का एक दृष्टिहीन बालक जिसका पियानो वादन सुन कर उन्होंने दबसे बेहतरिन सुबह कहा।
रहमान ने इस पियानो वादन को स्वयं अपने फेसबुक के पेज पर प्रकाशित कर लिखा कि जिस सुबह उन्होंने इसे सुना वह उस साल की सबसे बेहतरीन सुबह थी।
क्या शाकाहारी खाना भी, इतना स्वादिष्ट हो सकता है
फलाफेल बॉलस् – चित्र विकिपीडिया से
हमारे मित्र का बेटा, हमें ए.आर. रहमान संगीत की के.एम. म्यूज़िक कान्ज़रवेटरी (KM Music Conservatory) ले गया था। वही हमें, रात्रि के भोजन के लिये, चेन्नेई के क्रीम सेंटर (crème centre) भोजनालय में ले गया। हमें कुछ आश्चर्य हुआ क्योंकि वह मांसाहारी भोजन पसन्द करता है और इस भोजनालय में केवल शाकाहारी खाना मिलता है। उसने इसका कारण बताया,
‘मुझे चेन्नई आ कर पता चला कि शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाने से बेहतर और इतना स्वादिष्ट हो सकता है।’
वास्तव में, क्रीम सेंटर, भोजनालयों की चेन है। इनके भोजनालय कई शहरों में हैं। यह कुछ खास तरीके के हैं। इनमें दुनिया-भर के शाकाहारी भोजन मिलते हैं चाहे वे अपने देश को हों या विदेश के। चेन्नई में, उनकी व्यंजन सूची भी खास तरीके की थी। इनमें उस व्यंजन के चित्र भी बने थे।

नाचोस् – चित्र विकिपीडिया से
हम कई लोग थे। इसलिये हमने अलग, अलग तरह का खाना लिया:
- पीने के लिये, आइस लेमन टी (ice lemon tea) एवं जूस;
- खाने में, कांसबाल वा नाचोस् (Nachos) – मैक्सिकन खाना, फलाफेल (Falafel) – लेबनींज खाना, एवं सिज़लर (Sizzler); और
- अन्त में, मीठे के रूप में, ब्राउनीज आइसक्रीम (Brownie ice cream)।
यह खाना बहुत ही स्वादिष्ट था। मुझे लगा कि मैं चेन्नई आकर इसे नहीं खाता तो कुछ रह जाता। मुझे यह भोजनालय भी अनूठा लगा। आपको किसी शहर में, क्रीम सेंटर में खाने का मौका लगे, तब चूकियेगा नहीं।
काश, थॉम स्कूल जा पाता
चेन्नई में मुझे अपने मित्र के यहां सुबह नाश्ते पर जाना था। मैंने सोचा कि उसकी पत्नी के लिए कुछ फूल ले चलूं। उसके घर जाते समय, रास्तें में एक १४-१५ साल का लड़का फूलों के साथ खड़ा हुआ था। मैंने रूक कर, उससे फूल लिया।
मुझे बहुत फूलों वाले बुके देना नहीं पसंद है। मैं हमेशा केवल एक ही फूल देना पसंद करता हूं। इसमें पैसा बरबाद नहीं होता है और भावना भी व्यक्त हो जाती है।
मैंने लड़के से नारंगी रंग का गुलाब लिया और पैक करने को कहा। उसने बताया,
‘मेरा नाम थॉम है। मैं चेन्नई से नहीं हूं। मुझे तमिल नहीं आती है पर हिन्दी अच्छी आती है।’

थॉम दुकान पर बुके के साथ
मुझे लगा कि वह उत्तर भारत से है।
थॉम ने उस गुलाब के फूल के साथ एक मोरपंखी की डंठल को प्लास्टिक में पैक किया। उसके बाद एक चमकती हुई पन्नी लगायी। इसके लिए उसने मुझसे दस रूपये लिये।
मैंने उससे पूछा कि क्या यह दुकान तुम्हारी है उसने जवाब दिया,
‘यह दुकान मेरी नहीं है। मेरे मालिक की है और मैं उसके लिये काम करता हूं।’
मैंने पूछा कि तुम्हें कितना पैसा मिलता है। उसने कहा,
‘मालिक मुझे रहने की जगह और खाने के साथ, प्रतिदिन का दस रूपया देते हैं।’
मैंने उससे पूछा कि कितने फूल बेच लेते हो। उसने कहा,
‘यह निर्भर करता है कि समय कैसा है। शादी के समय ज्यादा फूल बिकते है। उस समय मैं कम से कम ५००/-रूपये का फूल बेच लेता हूं।’
उसने फूलों को बहुत अच्छी तरह से पैक किया। लगता था कि वह इसमें माहिर है।
मैंने उससे पूछा कि क्या तुम पढ़ते हो उसने कहा सर हिला कर मना किया। यह सुनकर थोड़ा सा दुख हुआ। काश, वह जिसके साथ रहता हो, वह उसे स्कूल में भी भेजते तो शायद थॉम का जीवन बेहतर हो जाता। यदि इस चिट्ठी के पढ़ने वालो में,
- वह व्यक्ति भी हो, जिसके साथ थॉम काम करता है तो मैं चाहूंगा कि वह थॉम को पढ़ने के लिये भेजे;
- उस व्यक्ति का कोई मित्र हो तो वह उस व्यक्ति को, थॉम को स्कूल भेजने के लिये प्रेरित करे।
मैं चेन्नई एक सम्मेलन में मुझे भाग लेने के लिए गया था। दोपहर में, मैंने उसमें भाग लिया तथा अपनी बात सबके सामने रखी। वह सराही भी गयी। हांलाकि, वह अंग्रेजी में था। उसके बाद हम लोग जल्दी सो गये। क्योंकि अगले दिन सुबह हमें वापस दिल्ली जाना था।
मैडम, जो आप कहें
पॉन्डचेरी यात्रा से लौटते समय, दिल्ली में भी रुकना हुआ। वहां पर हमारे पास कुछ समय था। सोचा कि कोई फिल्म देखी जाय।
हमारे कस्बे में अब अंग्रेजी फिल्म देखने को नहीं मिलती है। यदि मिलती है तो हिन्दी में डब की हुई। वह समझ में तो ज्यादा आती हैं पर मजा नहीं आता है। अंग्रेजों को, हिन्दी में बात करते हुए देख, अजीब सा लगता है। इसलिए कस्बे के बाहर, वह अंग्रेजी फिल्म देखना पसंद करता हूं जो कि हिन्दी में डब न की गयी हो। यानी, अंग्रेजी में हो।
हम लोगों ने ‘लव हैपेनस्’ (Love Happens) फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया। फिल्म देखने का मज़ा तो केवल पीवीआर में है। इसलिये हम, वसंतकुज की डी.टी. स्टार प्रॉमेनेड नामक मॉल में गये। हमने फिल्म का टिकट लिया और वहां एक रेस्त्रां में इटलियन खाना खाया। फिल्म शुरू होने में कुछ समय था। वहां पर, ओम शांति नाम की पुस्तकों की दुकान है। समय काटने के लिये, हम उसमें चले गये। मुझे अच्छा लगा कि वहां पर एक आलमारी में, हिन्दी की पुस्तकें थी।
तुशार राहेजा आई टी दिल्ली के पुरातन छात्र हैं। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘एनीथिंग फार यू मैम’ (Anything for you Ma’am)। यह पुस्तक भी वहां थी। मैंने इस पुस्तक को अंग्रेजी में खरीदने को सोचा पर हिन्दी पुस्तक आलमारी में, इसका हिन्दी अनुवाद भी था। मैंने उसे लिया और दुकान वाले से पूछा कि क्या आपकी हिन्दी में लिखी पुस्तकें बिकती हैं। उसने अंग्रेजी लहज़े में, हिन्दी बोलते हुए कहा कि बहुत कम बिकती हैं। मैंने पूछा,
‘क्या यह पुस्तक बिकी?’
उसने बताया,
‘बहुत ज्यादा बिकी है अंग्रेजी की लगभग ५० कापियां और हिन्दी में आप पहले व्यक्ति हैं जो इसे ख़रीद रहे हैं। यही कारण है कि हम हिन्दी की बहुत कम पुस्तकें रखते हैं।’
मैनें कहा,
‘मैं हिन्दी की कॉपी लेता हूं। अगली बार हिन्दी की और पुस्तकें लूंगा। इससे आपकी हिन्दी की पुस्तकों की मांग बढ़ेगी।’
मालूम नहीं कि आगे यह हुआ कि नहीं।
मुझे चेतन भगत की ‘फ़ाइव प्वाइंट समवन’ पसन्द आयी थी पर यह यह पुस्तक कुछ साधारण सी लगी; कुछ खास पसन्द नहीं आयी। लगा कि ‘फ़ाइव प्वाइंट समवन’ की सफलता देख कर, लिखी गयी है। यह सच है कि पढ़ाई के साथ कुछ मस्ती भी होनी चाहिये। लेकिन, ऐसी मस्ती जो आपके विद्यालय को अच्छे प्रकाश में न दिखाये, वह किस काम की।
प्यार तो होता ही है

फिल्म का भावपूर्ण दृश्य
पॉन्डचेरी से लौटते समय हम दिल्ली रुके थे। हमारे पास कुछ समय था हम लोग वसंत कुंज की, डी.टी. स्टार पॉमेनेड मॉल में ‘लव हैपंस्’ फिल्म देखने चले गये। जब पीवीआर में फिल्म देखने पहुंचे तब दरवाजे पर, सिक्योरिटी गार्ड ने बड़े अदब से स्वागत किया और कहा,
‘गुड आफटर नून, सर।’

विधुर – पत्नी की मृत्य के दुख से नहीं उभरा
मैंने उसकी ओर देखा और मुस्कुरा कर नमस्ते कह कर उसका जवाब दिया।
वह समझ नहीं पाया कि क्या और क्यों कह रहा हूं। मैंने फिर उससे कहा
‘नमस्ते।’
उसके बगल में एक युवती खड़ी हुई थी। वह बता रही थी कि आने वाले लोग किधर जाए। उसने मुस्कुरा कर मुझसे नमस्ते कहा। तब गार्ड के समझ में आया कि मैं क्या कहना चाहता हूं। तब गार्ड ने भी मुझसे नमस्ते किया। मैंने उसे याद दिलाया कि यह भारत है और जब अगली बार कोई आये तो पहले नमस्ते करना। उसने वायदा किया कि वह ऐसा ही करेगा।
‘लव हैपेनस्’ एक विधुर की प्यारी सी, भावनात्मक प्रेम कहानी है। इसकी पत्नी की मृत्यु, तीन साल पहले एक कार दुर्घटना में हो जाती है। उसने उस दुख से उभर ने के लिए, अपनी सहायता करने वाली पुस्तक (Self help book) लिखी है। वे बहुत अच्छा बोलते हैं और उस पुस्तक की बिक्री के लिए बढ़ावा दे रहे हैं। इसलिए वे सीएटल जाते हैं।
सीएटल में, उनका सम्मेलन होटल में है। वहां लोग हैं। वे उनको यह बताते हैं कि लोग अपने दुखों को कैसे दूर करें। वे लोगों को इसके लिये प्रेरित करते हैं। लेकिन सच तो यह है कि वह अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख से नहीं उभर पाये थे।

इलॉयस
विधुर की पत्नी सीएटल की थी और उसके माता पिता वहीं रहते थे। उनकी सास, ससुर उससे क्रोधित रहते थे। विधुर को लगता था कि वह इसलिए गुस्सा रहते हैं कि उनकी पत्नी की मृत्यु कार दुर्घटना में हो गयी है जिसमें वह स्वयं भी था और शायद उसके सास-ससुर, उसे इस घटना के लिये जिम्मेवार मानते हैं। लेकिन वास्तव में, उसके सास-ससुर इसलिए गुस्सा रहते थे कि उसने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद, उनसें कोई सम्बंध नहीं रखा था।
होटल में, उसकी मुलाकात एक इलॉयस नाम की महिला से होती है जो फूल बेचने वाली है और वह उससे प्यार करने लगता है। वह महिला उसे इस बात के लिए उत्साहित करती है कि वह अपने दुख से उभरे। बस यही कहानी है कि दूसरों को दुख को उभरने की सलाह एवं प्रेरणा देने वाला, क्या अपने दुख से उभर पाया?
यह एक रोमानी कहानी है और इसमें कोई ऐसा दृश्य नहीं है जिसे आप अपने बेटे या बेटी के साथ नहीं देख सकते। यह परिपक्व लोगों के लिए फिल्म है। मेरे विचार से यदि आप किशोरावस्था से गुजर चुके हों तो इसे अवश्य देखें।
फिल्म देखने के बाद, शाम को गाड़ी पकड़ कर, हम अपने कस्बे में आ गये।
हो सकता है कि लैपटॉप के नीचे चाकू हो।। कोबरा मेरे हाथ पर लिपट गया।। घोड़ा डाक्टर, गायों और भैंसों की लात खाते थे।। पॉन्डेचेरी फ्रांसीसी कॉलोनी थी।। शाम सुहानी लग रही थी।। महिलाएं बेवकूफ़ बन रही हैं।। पैंतालिस मिनट में पांच हजार लोगों का खाना।। यह स्कूल अनूठा है।। शिव ने पार्वती को चूम लिया।। अरबिन्दो के संपर्क के आने से पहले, मां की शादी हो चुकी थी।। मातृमन्दिर, ऑरोविल की आत्मा है।। ऑरोविल की सबसे अच्छी बात – इसकी हरियाली।। हमें बहुत पैसा मिल रहा है।। मैं आमिर खान हूं।। हिन्दूओं ने भी मन्दिर तोड़े।। भगवान को भी जलन होने लगी।। सात हाथी मिलकर भी नहीं हिला सके।। टाइगरकेव – देवी दुर्गा का पुण्य स्थल।। संगीतकार ऐ.आर. रहमान की सबसे बेहतरीन सुबह।। क्या शाकाहारी खाना भी, इतना स्वादिष्ट हो सकता है।। काश, थॉम स्कूल जा पाता।। मैडम, जो आप कहें।। प्यार तो होता ही है।।
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यात्रा विवरण को समग्रता में पढना अच्छा लगा!
आरम्भ किया तो अंत तक पहुँचने से पहले रुके ही नहीं…!
सुन्दर पोस्ट!