यह बच्चन जी की जीवनी का चौथा एवं अंतिम भाग है। बच्चन जी इलाहाबाद में क्लाईव रोड पर जिस बंगले में रहते थे, उसके कमरों में दरवाजे, खिड़कियों और रोशनदान को मिलाकर १०-१० खुली जगहें थी, इसलिये उसका नाम उन्होंने दशद्वार रख दिया।
सोपान का अर्थ है: सीढ़ी। बच्चन जी जब दिल्ली गये तो वहां पर वे लेखकों व पत्रकारों की सहकारी समिति के सदस्य बन गये। इस सहकारी समिति को गुलमोहर पार्क में कुछ जमीन मिली जिसमें एक प्लाट बच्चन जी को भी मिला। इस पर वहां बच्चन जी ने एक तिमंजिला मकान बनाया। जिसकी मजिंलो को एक लम्बी सीढ़ी जोड़ती है जो नीचे से ऊपर तक एक साथ देखी जा सकती है। इस घर में प्रवेश करने पर सबसे पहले दिखती है , इसलिये इस मकान का नाम उन्होंने सोपान रखा।
इस भाग में, बच्चन जी ने इलाहाबाद से निकल कर जो जीवन बिताया, उसका वर्णन है। जाहिर है, इसमें उनके विदेश मंत्रालय से सम्बन्धित संस्मरण, दिल्ली की राजनैतिक गतिविधियां (जिसमें इमरजेंसी भी है), अमिताभ बच्चन का सिनेमा जगत में उदय और करोड़ों लोगों का चहेता अभिनेता बनने की कहानी है। यह उनके जीवन का सबसे खुशहाल समय भी रहा। इन क्षणों में वे इलाहाबाद की अच्छी बातों को याद करते हैं और कहीं न कहीं उसके अहसान-मन्द भी दीखते हैं।
अमिताभ बच्चन जया भादुड़ी
अमिताभ बच्चन ने जिन ऊंचाइयों को छुआ, वह किसी भी पिता के लिये एक हर्ष की बात हो सकती है और इस भाग में वे बहुत कुछ अमिताभ बच्चन के बारे में है। अमिताभ के अभिनय की क्षमता के बारे में कहते हैं कि,
‘मुझे याद है १९४२ के “भारत छोड़ो” आंदोलन के समय जब इमर्जेसी लगा दी गई थी, और युनिवर्सिटी दो-तीन महीने के लिए बंद करा दी गई थी तो हम दोनों घर पर शेक्सपियर के नाटकों की प्ले-रीडिंग किया करते थे। अमित पेट में था। अब हमसे लोग पूछते हैं कि अमिताभ में अभिनय की प्रतिभा कहॉं से आई। मैं उन दिनों की याद कर एक प्रति-प्रश्न उछाल देता हूँ, “अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदने की क्रिया कहॉं से सीखी?”
अमिताभ बच्चन शुरू में इलाहाबाद में ब्यॉज़ हाई स्कूल में पढ़े और फिर शेरवुड, नैनीताल पढ़ने के लिए चले गये। वे, स्कूल के नाटकों में भाग लेते थे और पर जीवन में वे इंजीनियर बनना चाहते थे। बी.एस.सी. के बाद उनका यह सपना टूट गया और वे कलकत्ता नौकरी करने चले गये। इसका बात को वे कुछ इस प्रकार से बताते हैं,
‘अमिताभ अपने इंजीनियर बनने का सपना से रहे थे।
तीन वर्ष बाद कम्पार्टमेन्टल से उन्होंने बी.एस.सी. की।
इंजीनियर बनने का सपना पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था।
…
अमिताभ ने अपने स्नातकीय डिग्री के लिए विज्ञान लेकर अपनी मूल प्रवृत्ति को पहचानने में भूल की थी; परीक्षा-परिणाम संतोषजनक नहीं हुआ। विज्ञान लेकर आगे पढ़ने का रास्ता अब बंद हो गया था।’
सुना था कि अमिताभ बच्चन ने ऑल इन्डिया रेडियो पर समाचार पढ़ने के लिये आवेदन पत्र दिया था जो कि स्वीकर नहीं हुआ था – उनकी आवाज ठीक नहीं पायी गयी थी। मुझे इस पर कभी विश्वास नही होता था, पर यह सच है। बच्चन जी लिखते हैं कि,
‘आल इंडिया रेडियो में कुछ समाचार पढ़ने वाले लिए जाने वाले थे। अमित ने प्रार्थना पत्र भेज दिया। उन्हें आवाज-परीक्षण के लिए बुलाया गया, पर उनकी आवाज ना-काबिल पाई गई। पता नहीं रेडियों वालों के पास अच्छी आवाज का मापदंड क्या था। आज तो अमिताभ के अभिनय में आवाज उनका खास आकर्षण माना जाता है। पर अच्छा हुआ वे रेडियो में नहीं लिए गए। वहॉं चरमोत्कर्ष पर भी पहुँच कर वे क्या बनते? – “मूस मोटाई लोढ़ा होई।” हमारी असफलता और नैराश्य में भी कभी-कभी हमारा सौभाग्य छिपा रहता है।’
अमिताभ बच्चन की बात हो और जया भादुड़ी का जिक्र न आये – यह तो हो ही नहीं सकता। बच्चन जी पर उसकी पहली छाप के बारे में तो उन्ही से सुनना ठीक रहेगा,
‘जया कद में नाटी, शरीर से न पतली, न मोटी, रंग से गेहुँआ; उसकी गणना सुंदरियों में तो न की जा सकती थी, पर उसमें अपना एक आकर्षण था, विशेषकर उसके दीर्घ-दीप्त नेत्रों का, और उसके सुस्पष्ट मधुर कंठ का। एक अभाव भी उसमें साफ था—समान अवस्था की लड़कियों की सहज सुलभ लज्जा का, पर फिल्म में काम करने वाली लड़की से उसकी प्रत्याशा भी न की जा सकती थी।’
इस भाग को पढ़ने के बाद, मुझे अमिताभ बच्चन की दो बातें बहुत अच्छी लगीं।
- उन्होने अपने माता-पिता को हमेशा सम्मान दिया। अक्सर लोग अपने वृद्ध माता-पिता को भूल जाते हैं।
- उनका अपने पुराने सहयोगियों तथा कर्मचारियों के साथ व्यवहार।
अक्सर लोग जब बड़े आदमी हो जाते हैं तो अपने मुश्किल समय के लोगों को भूल जाते हैं, अमिताभ बच्चन ने ऐसा नहीं किया। यह बात बच्चन जी को भी बहुत अच्छी लगी। एक बार कलकत्ता में पिक्चर शूटिंग के दौरान उनके व्यवहार के बारे में बच्चन जी लिखते हैं,
‘कलकत्ता प्रवास में अमिताभ जी एक व्यवहार मुझे बहुत पसंद आया। एक शाम को उन्होंने याद कर-करके बर्ड और ब्लैकर्स के अपने पूर्व सहयोगियों को चाय पर आमंत्रित किया और एक-एक से ऐसे मिले जैसे अब भी उनके बीच ही काम कर रहे हों। … कभी उनके दफ्तर के पुराने चपरासी आदि भी आते तो वे उनको बुला लेते, खुशी से मिलते’
इस भाग को पढ़ने से यह भी पता लगा कि अमिताभ को अभिनेता के मार्ग में प्रोत्साहित करने में सबसे बड़ा हाथ उनके छोटे भाई अजिताभ का था। बच्चन जी को कई बार रूस जाने का मौका मिला। एक बार अजिताभ ने उनसे एक खास तरह का कैमरा मंगवाया जो बहुत ही मंहगा था। उस समय, यह उनकी समझ में नहीं आया कि वह क्यों इतना महंगा कैमरा मगंवा रहा है। इसका भेद तो बाद में खुला। उसने कैमरे से अमिताभ बच्चन की खास फोटो लेकर फिल्म जगत के लोगों को दिया ताकि अमिताभ बच्चन का फिल्म जगत में रास्ता खुल सके।
रुस यात्रा
इस भाग में बच्चन जी की रूस यात्रा और वहां के कई शहरों का भी वर्णन है। वे वहां बीमार हो गये। वे इस अनुभव को इस प्रकार से बताते हैं,
‘विदेश में कोई बीमार न पड़े, खासकर ऐसे विदेश में जहाँ उसकी भाषा न समझी जाय, या वह वहां की भाषा न समझे। इस दुर्भाग्य का शिकार भी मुझे होना था।’
बच्चन जी को रूस में अस्पताल से तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक उन्होनें यह नहीं कह दिया कि वे ठीक हो गये। बच्चन जी इसे कुछ इस प्रकार बताते हैं,
‘मुझसे पहले किसी ने गंभीरतापूर्वक या मजाक-मजाक में कहा था कि रूसी अधिकारी अस्पताल में दाखिल होने पर मरीज को या तो अच्छे होने पर बाहर जाने देते हैं, या फिर उसकी लाश को। वे नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि मरीज़ बाहर जा कर कहे कि उसका मर्ज़ रूसी डाक्टरों से अच्छा नहीं किया जा सका।’
मैं रूस कभी नहीं गया पर मुन्ने की मां लगभग बीस वर्ष पहले, एक सम्मेलन में बाकू गयी थी। उसके बाद, वह उन शहरो में गयी, जहां बच्चन जी गये थे। वह वहां बिमार तो नहीं पड़ी पर वहां पर अपने अनुभवों के बारे में कहती है,
‘बाकू … शहर एजरबजान में है और कैस्पियन समुद्र के तट पर बसा है। कॉन्फ्रेन्स का आयोजन समुद्र के तट पर बने एक सैनिटोरियम में किया गया था। सब लोग एक हाल में भोजन करते थे, जहां अक्सर गुजिया एवं अन्य पकवान खाने को मिलते थे।
विश्व के मशहूर शतरंज खिलाड़ी कैस्पारोव बाकू के हैं। पूरे शहर में जैसे शतरंज छाया रहता था, जैसे यहां पर क्रिकेट। पेड़ों के नीचे, व्यक्तियों को शतरंज खेलते अक्सर देखा जा सकता था।
यहां सभी ने कहा कि रूस जा रही हो तो लेनिनग्राड अवश्य जाना, वह उत्तर का ‘वेनिस’ कहलाता है। मैं वहां भी गयी थी। वहॉं पहुँच कर मैंने देखा कि पूरे शहर में नहरें बह रही हैं जो कि समुद्र में जाकर मिलती हैं। वहां का सेन्ट पीटर्सबर्ग संग्रहालय विख्यात है।
लेनिनग्राड में कुछ भारतीय लड़के लड़कियों से भेंट हुई जो वहां पढ़ने के लिए गये हुए थे। उन्होंने मुझे भारतीय खाना बनाकर खिलाया- दाल, चावल और पापड़ की रसेदार तरकारी बनायी। … लेनिनग्राड में सब्जी की दुकान पर सिर्फ आलू बिकता दिखाई देता था और फल की दुकान पर केवल हरा सेब – पता नहीं, वहां अब क्या क्या मिलता है।
वापस भारत आने के लिए, मॉस्को से होते हुए आना था। मैं मॉस्को विश्वविद्यालय देखने गयी जो मॉस्कवा नदी के किनारे बना हुआ है। सभी इमारतों में एक अद्भुत सुन्दरता थी। मॉस्को में उस समय भारतीय राजदूत श्री टी.एन.कौल थे। मैंने उनसे फोन पर बात की … वे शुद्ध हिन्दी में बोल रहे थे। हाँ, मॉस्को के सब-वे स्टेशन अपनी सुन्दर मूर्तियों और स्वच्छता के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं।
जिस समय मैं रूस गयी थी वह समय रूस देश के लिये बहुत मुश्किल का समय था। नये बदलाव आने को थे और लोग कुछ डरे से लगते थे, मुझे कोई भी हंसता हुआ नहीं दिखता था। यह बात कुछ अजीब सी लगती थी।’
बच्चन जी और नारी मन
कहा जाता है कि नारी को समझ पाना, पुरषों के लिये सुलभ नहीं है। बच्चन जी संवेनदशील थे – कई महिलाओं के नजदीक रहे। अपनी जीवनी कुछ ऐसे सम्बन्धों की भी चर्चा की जिसे भारतीय समाज में दबी जुबान से बात की जाती है। मेरे लिये कहना मुश्किल है कि वे नारी मन को अच्छा समझ पाये कि नहीं। यह तो वही व्यक्ति कह सकता है जो स्वयं इसमें पारंगत रहा हो – मैं नहीं। पर मैं, बच्चन जी के नारी विश्लेषण से सहमत नहीं हूं। ऐसा क्यों है, मैं नहीं बता सकता हूं, मैं स्वयं न तो इसे समझ पा रहा हूं और नही इसे तर्क पर रख पा रहा हूं।
बच्चन जी कहते हैं कि तुलसी दास जी ने,
‘एक ओर तो उन्होंने सीता के रूप में आदर्श नारी की कल्पना की और दूसरी ओर, जहॉं भी मौका मिला नारी की निंदा करते रहे, प्राय: उसकी कामुकता की ओर संकेत करते हुए।’
इसका कारण वे इस तरह से बताते हैं,
‘विवाह हो गया था, पर पत्नी उनकी अनुपस्थिति में, बिना उनकी अनुमति के मायके भाग गई थी। आधी रात को तुलसीदास को पत्नी की याद सताती है … पहुँच जाते हैं [पत्नी] के कमरे में। … कहा तो यह जाता है कि … [पत्नी] ने कहा कि जैसी प्रीति आपको मेरे हाड़-मांस के शरीर से है वैसी प्रीति यदि आप रघुनाथ जी से करते तो आपका जन्म-जन्मांतर सुधर जाता … क्षमा करेंगे, इस विषय में मेरी अलग ही कल्पना है। अधिक संभावना इसकी है कि उस रात तुलसीदास ने … [अपनी पत्नी] को किसी और के साथ देखा। उस रात उनकी मोहनिद्रा नहीं टूटी। नारी के प्रति उनका मोह भंग हुआ—‘ Frailty thy name is woman’ (नारी तेरा नाम छिन्नरपन)।’
हो सकता है कि वे ठीक हों, पर मेरे विचार उनसे नहीं मिलते। मैं इस बात पर उनसे बिलकुल सहमत नहीं हूं – शायद मैं कम संवेदनशील हूं या फिर महिलाओं को नजदीक से कम परखा है।
वे भारतीय नारी की मुश्किलों के बारे में लिखते हैं कि,
‘परंपरागत मर्यादाओं में बँधी भारतीय नारी की बड़ी मुसीबत है। किसी पुरूष के प्रति यदि उसमें प्रेम जागे तो वह सीधे-साफ शब्दों में यह नहीं कह पाती कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। प्राय: वह उसे अपना भाई बनाती है। उसकी कलाई पर राखी बांधती है और इस प्रकार उससे किसी संबंध से जुड़ उसे अपना सखा, साथी, मित्र, प्रेमी बना पति के रूप में भी पाने की कामना करती है।’
उनके मुताबिक शूर्पणखा भी अनाड़ी थी। उनके अनुसार,
‘यदि वह [शूर्पणखा] बहन बनकर राम के हाथ में राखी बॉंधने के लिए आई होती, तो … अरण्य कांड के बाद रामायण की कथा कुछ और ही तरह लिखी जाती।’
वे साहित्य की दुनिया से दो उदाहरण भी देते हैं,
‘सुनता हूं कि पुष्पा ने भी भारती के हाथ में पहले राखी बांधी थी; आज वे उनसे एक पुत्र, एक पुत्री की मां हैं। नंदिता जी को आज प्राय: सभी लोग भगवतीचरण वर्मा की पत्नी के रूप में जानते हैं। उन्होंने भी पहले वर्मा जी के हाथ में राखी ही बांधकर उनसे बहन का रिश्ता कायम किया था।’
बच्चन जी के अनुसार अजिताभ और रोमेला का प्रेम भी, शायद इसी तरह से शुरु हुआ। यह सब सच है कि नहीं यह तो वे ही लोग बता सकते हैं। मेरे विचार से, शायद यह उस समय भी सच नहीं था। मैं बच्चन जी के समय का तो नहीं पर उनके पुत्रों के समय का हूं। मेरे कई मित्रों ने प्रेम विवाह किया पर उनका पत्नी से रिश्ता कभी भी बहन के रूप में नहीं शुरु हुआ। अक्सर सोचने और विचार करने में भिन्नता का कारण, अलग अलग वातावरण में बड़े होना होता है। शायद मेरे और उनकी सोचने और विचार में फर्क होने का यही कारण हो।
ईमरजेंसी
यदि किसी के व्यक्तित्व का सही आंकलन करना है तो उसे मुश्किल के समय पर देखें न कि खुशहाली के समय पर।
अपने देश में भी मुश्किल समय का दौर आया: १९७५-७७ का समय। यह देश के लिये मुश्किल का समय था। लोगों के चरित्र का सही आंकलन, उस समय उनके बर्ताव से किया जा सकता है। इस समय कई बुद्धिजीवियों ने शासक दल का सर्मथन दिया। बच्चन जी उनमें से एक थे। बाद में शायद उन्हें इसका कुछ पछतावा रहा। वे इसे, इस तरह से समझाते दिखते हैं।
‘एक दिन किसी ने मुझे प्रधान मंत्री निवास से फोन किया, शायद संजय ने, कि क्या मेरा नाम आपात्कालीन स्थिति के समर्थकों में दिया जा सकता है? और अगर मैं सच कहूँ तो केवल गांधी परिवार से अपनी मैत्री और निकटता के कारण मैंने फोन पर ही हामी भर दी। बाद को कई दिनों तक रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से कई और लेखकों के साथ मेरा नाम भी इमर्जेसी के समर्थकों में प्रसारित किया गया। जहाँ तक मुझे याद है, उनमें दो प्रमुख नाम थे गुरूमुख सिंह ‘मुसाफिर’ के और सरदार जाफरी के।’
इमरजेंसी के बाद इस तरह की बात बहुत से बुद्धजीवियों यहां तक कुछ न्यायधीशों ने की। आप स्वयं उनके चरित्र का स्तर आंक सकते हैं। यह बात आपको कठोर लग सकती है पर इमरजेंसी के मेरे अनुभव कड़ुवे हैं। मेरे पिता दो साल तक अकारण बन्द रहे। इस दौरान सरकार के द्वारा पुलिस, और अफसरशाही का जितना पतन हुआ, उतना अंग्रेजों के समय भी नहीं हुआ था। मैंने इसके बारे में यहां लिखा है।
अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा
बच्चन जी दिल्ली में विदेश मंत्रालय में अनुवाद करने का कार्य करते थे। वे अनुवाद की नीति के बारे में कहते हैं,
‘भाषा सरल-सुबोध होगी
पर बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं
लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को
सही भी होना है।
और मेरा दावा है कि लिखित हिन्दी अंग्रेजी के ऊंचे से ऊंचे स्तर को छूने की क्षमता आज भी रखती है।’
वे भाषा के प्रथम आयोग के परिणामो के बारे में दुख प्रगट करते हुऐ कहते हैं कि,
‘सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था कि १५ वर्ष तक यानी १९६५ तक अंग्रेजी की जगह पर हिंदी लाना न आवश्यक है, न संभव; सिद्धान्तत: हिंदी राजभाषा मानी जायगी, अंग्रेजी सहचरी भाषा; (व्यवहार में उसके विपरीत: अंग्रेजी राजभाषा, हिंदी सहचरी – अधिक उपयुक्त होगा कहना ‘अनुचरी’)। सरकारी प्रयास हिंदी के विभिन्न पक्षों को विकसित करने का होगा – प्रयोग करने का नहीं – जिसमें कितने ही १५ वर्ष लग सकते हैं। मेरी समझ में प्रयोग से विकास के सिद्धान्त की उपेक्षा कर बड़ी भारी गलती की गई; अंततोगत्वा जिसका परिणाम यह होना है कि हिंदी तैयारी ही करती रहेगी और प्रयोग में शायद ही कभी आए – “डासत ही सब निशा बीत गई, कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो”।’
मुझे बच्चन जी की यह बात ठीक लगती है। हिन्दी की दुर्दशा का यह भी एक कारण है।
बच्चन – पन्त विवाद
१९७१ में बच्चन जी ‘पंत के दो सौ पत्र’ का प्रकाशन करना चाहते थे। इनके मुताबिक वे उसे उसी रूप में छपवाना चाहते थे जिस रूप में वे लिखे गये थे पर पन्त जी उसे कुछ सेंसर करना चाहते थे। इसी से दोनो के बीच में कुछ मनमुटाव हो गया और वह इतना बढ़ गया कि पन्त जी ने इसका प्रकाशन रोकने के लिये, इलाहाबाद में एक मुकदमा ठोक दिया। बच्चन जी के मुताबिक, बाद में, पंत जी ने अपने वकील की सलाह पर प्रकाशक से इस तरह का समझौता कर लिया कि वे पंत जी पत्रों से वे अंश निकाल देंगे जिस पर पंत जी को आपत्ति है और इसी आधार पर पंत जी ने मुकदमा वापस ले लिया। बच्चन जी लिखते हैं कि,
‘पंत जी ने –शायद अपने पक्ष की दुर्बलता देखकर –मुकदमा वापस लेने का ही फैसला किया।’
मैंने अपने सहपाठी तथा वकील मित्र इकबाल से पूछा क्या यह सही है। उसका कहना है,
‘किसी के लिखे पत्र उसके कॉपीराइट होतें है और उसकी अनुमति के बिना छापे नहीं जा सकते। पंत जी का मुकदमा कमजोर नहीं था कमजोर तो बच्चन जी का पक्ष था।
पंत जी बहुत बड़े थे। छोटे (बच्चन जी) की जिद्द देख कर खुद ही झुक गये।’
मैंने इस विवाद के बारे में संक्षेप में लिखा। इस भाग में, इस विवाद के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। जिसे न मैं उचित समझता हूं, न ही उसका इससे अधिक जिक्र करना – पढ़ने के बाद दुख हुआ। शायद बड़ा व्यक्ति होने के लिये केवल बड़ा साहित्यकार होना जरूरी नहीं, इसके लिये कुछ और होना चाहिये। यह भाग पढ़ कर मन खट्टा हो गया।
बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा निम्न चार भागों खन्डो में लिखी है
- क्या भूलूं क्या याद करूं;
- नीड़ का निर्माण;
- बसेरे से दूर;
- दशद्वार से सोपान तक।
मैंने इनकी समीक्षा कुछ कड़ियों में अपने उन्मुक्त चिट्ठे पर की है। यहां पर उन्हें संकलित कर चार चिट्ठियों में रख रहा हूं। प्रत्येक चिट्ठी पर उनकी जीवनी के एक भाग की समीक्षा रहेगी। मैंने बच्चन जी की जीवनी किसी खास कारण से पढ़नी शुरू की। इस कारण के बारे में आप मेरी चिट्ठी, ‘हरिवंश राय बच्चन – विवाद‘ पर पढ़ सकते हैं। यह कॉपीराइट का उल्लघंन होगा कि नहीं – इस बारे में आप मेरी चिट्ठी, ‘मुजरिम उन्मुक्त, हाजिर हों‘ पर पढ़ सकते हैं।
सांकेतिक चिन्ह
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[…] review of Harivansh Rai Bachchan’s ‘Dashdwar se Sopan tak‘ by Unmukt. The book is in Hindi, so is the review. Linked by Cuckoo. Join Blogbharti […]
बच्चन जी के आत्मकथ्य के इस भाग के अंश आपकी कमेन्टरी के साथ पढ़ना अति रोचक रहा. भाभी जी की रुस यात्रा का अंश भी दिलचस्प है. आभार.