यह हमारी मथुरा-वृन्दावन यात्रा का विवरण है।

कन्हाई चित्रकला का नमूना
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रस्किन बॉन्ड

रस्किन बॉन्ड पुस्तकों की दुकान पर – चित्र फोटोबकेट से चित्र
रस्किन बॉन्ड (Ruskin Bond), अंग्रेजी भाषा के, बेहतरीन लेखक हैं। उनके पिता रॉयल ऐयर फॉर्स में थे। उनका एक भाई और एक बहन है। उनका जन्म १९ मई १९३४ में कसौली हिमाचल में हुआ था। उनका बचपन जामनगर, शिमला और देहरादून में बीता। वे छोटे ही थे जब उनके माता पिता का तलाक हो गया। उनकी मां ने एक हिन्दू से शादी कर ली।
रस्किन बॉन्ड ने अपनी पढ़ाई शिमला के बिशप कॉटन स्कूल से पूरी की। इसके बाद वे लंदन चले गये। लेकिन वे भारत को भूल नहीं पाये और वापस यहीं आ कर बस गये। इस समय वे, मसूरी के पास, लैंडोर (Landour) में, अपने गोद लिये परिवार के साथ, रहते हैं।
रस्किन बॉन्ड का बचपन पुस्तकों के बीच बीता। शायद इसी ने, उनके मन में पुस्तक प्रेम जगाया जिसने उन्हें लेखक बनने के लिये प्रेरित किया। उन्होंने १७ साल की उम्र में पहली कहानी ‘रूम ऑन द रूफ’ (Room On The Roof) लिखी। इसके लिये उन्हें १९५७ में John Llewellyn Rhys पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरुस्कार ३५ साल से कम उम्र के कॉमनवेल्थ को इंग्लैंड में प्रकाशित अंग्रेजी लेखन के लिये दिया जाता है।
उन्हें साहित्य अकादमी के द्वारा १९९२ में अंग्रेजी लेखन के लिये उनकी लघु कहानियों के संकलन ‘Our Trees Still Grow in Dehra’ पर साहित्य अकादमी पुरुस्कार भी मिल चुका है। १९९९ में बाल साहित्य में योगदान के लिये वे पद्म श्री से सम्मानित किये गये हैं।
रस्किन बॉन्ड की कई कहानियों पर फिल्में बन चुकी हैं। शशी कपूर की फिल्म ‘जनून’ १८५७ की स्वतंत्रता की लड़ाई की घटना पर है। यह उनकी कहानी ‘A Flight of Pigeons’ पर आधारित है। फिल्म ‘The Blue Umbrella’ भी उनकी इसी नाम की कहानी पर बनी है। प्रियंका चोपड़ा के द्वारा अभिनीत की गयी फिल्म ‘सात खून माफ’, उनकी लघु कथा ‘Susanna’s Seven Husbands’ पर बनायी गयी है।
रस्किन बॉन्ड, मेरे बेटे के प्रिय लेखक भी हैं हांलाकि मैंने उन्हें नहीं पढ़ा है। अपने बेटे के कहने पर, मैंने उनकी पस्तक ‘The Best of Ruskin Bond’ पढ़नी शुरू की। इसमें उनकी लघु कहानियां, वीभत्स कहानियां, निबन्ध, यात्रा वर्णन, गीत और प्रेम कवितायें हैं। यात्रा वर्णन में, उनका एक लेख मथुरा के बारे में ‘Mathura’s Hallowed Haunts’ शीर्षक से है। इसमें वे लिखते हैं,
‘It has been said that, “if a man spend in Benaras all his lifetime, he has earned less merit than if he passes but a single day in the sacred city of Mathura’
कहा जाता है कि बनारस में पूरा जीवन बिताने पर भी, मथुरा में एक दिन व्यतीत करने से कम पुण्य मिलता है।
कन्हैया के मुख में, मक्खन नहीं, ब्रह्माण्ड दिखा
मथुरा, कृष्ण कन्हैया की जन्म भूमि है।

वृन्दावन गूगल नक्शे से
मथुरा के बगल में वृन्दावन है। यशोदा मां वृन्दावन में थीं। यहीं पर कृष्ण कन्हैया का बचपन बीता और राधा के साथ रास लीला भी यहीं की।
यमुना नदी की कटान वृन्दावन पर कुछ अजीब तरह से है। ऐसा लगता है कि – यमुना की धारा, जीभ रूपी जमीन का बाहरी भाग हो; वृन्दावन यमुना से घिरी हुई है। इसकी कथा भी कुछ अजीब है।कहा जाता है कि एक दिन कृष्ण को देख बलराम को भी जोश आ गया वे भी यमुना के तट पर नृत्य करने लगे। लेकिन उनका नृत्य इतना फूहड़ था कि यमुना ने हंस कर कहा
‘अरे बस करो, तुम कैसे कृष्ण की तरह नृत्य कर सकते हो; वह तो दैविक है।’
इस पर बलराम को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने हल से, यमुना तट से इतना गहरा खांचा खींचा कि यमुना उसमें गिर गयी और अपने पथ से भटक कर गोल चक्कर में चली गयीं। वृन्दावन में, बांके बिहारी का मन्दिर है।
मेरे एक मित्र बांके बिहारी के भक्त है। शायद महीने में दो बार, उनके दर्शन के लिए जाते हैं। कुछ समय पूर्व मेरी तबियत खराब हो जाने के समय, मेरे वह मित्र, मेरे पास आये थे। उन्होंने मुझसे। ५१/-रुपया एक लिफाफे में रख कर, बांके बिहारी का नाम लिख कर देने को कहा। उसके बाद जब मैं दिल्ली में अस्पताल में भर्ती था तब वह मुझसे मिलने के लिए आये। उन्होंने मुझसे कहा कि,
‘मैनें बांके बिहारी के मंदिर में आपके नाम से प्रसाद चढ़ाया है। बांके बिहारी ने कहा कि आप एकदम ठीक हो जायेगें। मैंने बांके बिहारी से वायदा किया है कि ठीक हो जाने के बाद आप उनके दर्शन करने जायेगें।’
मथुरा-वृन्दावन, कृष्ण-मय है। शायद, इसी लिये, रस्किन बॉन्ड अपनी मथुरा यात्रा का वर्णन करते समय बताते हैं कि ‘मथुरा में एक दिन, पूरे बनारस जीवन पर भारी है‘।मैं अज्ञेयवादी हूं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता। लेकिन, मित्र का किया वायदा तो पूरा करना ही था। बस हम, मथुरा का पुण्य कमाने और मित्र किया वायदा निभाने, मथुरा-वृन्दावन की यात्रा करने पहुंचे।
हम लोग सुबह मथुरा पहुंचे। नाश्ता करके, सबसे पहले श्री कृष्ण जन्म-स्थान मंदिर देखने के लिए गये। जन्म स्थान पर, प्राचीन काल से मन्दिर था, जो कि कई बार तोड़ा और फिर से बनाया गया। पुराने जन्म-स्थान परिसर के कुछ भाग में, एक मंदिर और कुछ भाग में मस्जिद बनी है।
कहा जाता है कि मन्दिर को आखरी बार १६६९ ईस्वी में, ६वेंमुगल बादशाह औरंगजेब ने, तुड़वा कर, मस्जिद बनवायी थी। लेकिन मस्जिद, मन्दिर गर्भगृह या कृष्ण-जन्मस्थान के ऊपर न हो कर, मन्दिर के सभामण्डप पर बनी थी। लोगों का कहना है कि यह औरंगजेब के एक हिन्दू सिपहसालार के कारण हो सका।

औरंगजेब – चित्र विकिपीडिया से
हिन्दू सिपहसालार औरंगजेब को सलाह दी,
‘जहाँपनाह, कृष्ण जन्मस्थल और मन्दिर में मूर्ती थी। इसलिये मुसलमानो के लिये वह जगह नापाक है। वहां मस्जिद जैसी पवित्र इमारत न बनवायी जाय।’
इसलिये मन्दिर के सभागृह पर मस्जिद बनायी गयी। मन्दिर का गर्भ-गृह और कृष्ण-जन्मस्थान, मन्दिर के मलबे में दब गया।
मैं नहीं जानता कि इसमें कितनी सच्चाई है और कितना झूट। यह इतिहास की बात है विज्ञान की बात नहीं। इतिहास व्यक्तिपरक होता है। यह इसी तरह से लिखा या याद किया जाता है जैसा इसे लिखने वाला अपने चश्में से देखता है या देखना पसन्द करता है।
वहां पर लोगों ने बताया कि मस्जिद, मंदिर को तोड़ कर बनी थी। लेकिन मस्जिद को पुराने मन्दिर के तल वा उससे कुछ ऊंचा बनाया गया था। लेकिन इस समय का मंदिर का भवन, मस्जिद के बाद बना है। मंदिर बनाते समय इस बात का ध्यान रखा गया कि वह मस्जिद से ऊंचा रहे।
अजीब बात है भगवान तो एक ही है। हम सोचते हैं कि हमारे भगवान अलग है और उनका महत्व पूजा स्थान की ऊंचाई से होता है। भगवान तो सब जगह है क्या ऊंचा और क्या नीचा।
मंदिर को देखने के बाद मैंने मस्जिद में जाने की बात की। उस समय पता चला कि मंदिर से, मस्जिद में नहीं जाया जा सकता। दोनों जगह जाने के लिए बाहर से, अलग-अलग रास्ते हैं।
इस मंदिर और मस्जिद दोनों का अपना इतिहास है, दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। क्या अच्छा होता कि दोनों के बीच का रास्ता भी होता ताकि एक तरफ से दूसरी तरफ जाया जा सकता हो। पहले बीच में रास्ता था। लेकिन अब प्रशासन की दृष्टि से सुविधाजनक न होने के कारण बंद कर दिया गया।
श्रीकृष्ण जन्म स्थान व मस्जिद में बहुत अधिक सीआरपीएफ लगी हुई थी। मैंने वहां पर गार्ड से कुछ बात की। उसका कहना था,
‘१९९१ में जब बाबरी मस्जिद और राम जन्म भूमि का विवाद उठा था, उस समय कुछ लोगों ने वहां पर मस्जिद की तरफ की जमीन पर यज्ञ करने की बात की थी। इसलिए वहां पर दोनो तरफ बैरीकेटिंग कर दी गयी और मंदिर से मस्जिद के बीच का रास्ता बंद कर दिया गया, ताकि विवाद न बढ़ जाए। सीआरपीएफ भी तभी से तैनात है।’
मेरे पूछने पर कि क्या यहां पर कोई अप्रिय घटना हुई है। उनका कहना था
‘यहां पर अभी तक तो कोई अप्रिय घटना नही हुई है और न ही ऎसा कुछ होने का अंदेशा है। यहां पर जितनी शांति है शायद और कहीं नही।’
मंदिर में बहुत भीड़ थी। लेकिन मस्जिद में नहीं। मेरे पूछने पर कि क्या मस्जिद में कोई नहीं आता? तब बताया गया,
‘जुम्मे के रोज़ या किसी महीने के खास दिन नमाज़ पढ़ने के लिए काफी लोग एकत्र होते हैं’।
मंदिर और मस्जिद में एक खास अन्तर भी लगा।
मंदिर की ज्यादातर ज़मीन पक्की है और नंगे पाँव चलना अपने आप में एक मुश्किल बात थी। लेकिन मस्जिद में जो ज़मीन थी उसमें एक बहुत सुन्दर लॉन था। शायद उसमें नंगे पांव चलना सुविधाजनक होगा। लॉन देखने में बहुत सुन्दर लग रहा था। शायद, मंदिर में ज्यादा लोग आते है । इसलिए यहां पर उस तरह का लॉन रख पाना अपने आप में मुश्किल होता होगा।
कृष्ण-जन्मभूमि मन्दिर को महमूद गजनवी ने लूटा

कृष्ण जन्मभूमि पर केशवदेव मन्दिर और शाही ईदगाह – चित्र आउटलुक से
इस समय, कृष्ण-जन्मभूमि को, श्रीकृष्ण जन्मस्थान-सेवासंघ न्यास देखता है। यह सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट के अन्तर्गत पंजीकृत है। यह न्यास न केवल वहां पर स्थित केशवदेव मन्दिर को देखता है पर इसके द्वारा की जाने वाली कुछ अन्य कल्याणकारी सेवाएं इस प्रकार हैं।
- बाल गोपाल शिक्षा सदन;
- आयुर्वेद भवन (आयुर्वेदिक चिकित्सालय);
- सचल चिकित्सा सेवा;
- मंदिर गौशाला;
- गौसेवा प्रकल्प;
- मानव शव अंतिम संस्कार सेवा;
- तीर्थो द्वार सेवा प्रकल्प।
इस न्यास के द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से, कृष्ण-जन्मभूमि के इतिहास के बारे में यह पता चलता है। इसकी मुख्य सूचनायें इस प्रकार हैं।
जनश्रुति के अनुसार, इस स्थान पर, सबसे पहले भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र, बज्रनाभ ने अपने कुलदेवता की स्मृति में, एक मंदिर बनवाया था।
पुरात्त्व की दृष्टि से सबसे पुराना शिला-लेख महाक्षत्रप शोड़ास के समय (ई०पू० ८०-५७) का मिला है यह ब्राहम्मी-लिपि में लिखा हुआ है, जिससे पता चलता कि शोडास के राज्य काल में वसु नामक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक मंदिर, तोरण-द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था।
उसके पश्चात, दूसरा बड़ा मंदिर, ४०० ई० के लगभग, सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल में बना। उस समय मथुरा नगरी संस्कृति एवं कला की बड़ी केन्द्र थी और यहां हिन्दू-धर्म के साथ साथ बौद्ध तथा जैन धर्म का भी उत्कर्ष था। इस स्थान के समीप ही बौद्धों और जैनियों के भी विहार एवं मंदिर बने हुए थे तथा उनके प्राप्त अवशेषों से यह स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्मस्थान बौद्ध एवं जैन धर्मानुयायियों के लिए भी आदर और सम्मान का केन्द्र था। सम्राट चन्द्र गुप्ता विक्रमादित्य द्वारा निर्मित, इस भव्य मंदिर को महमूद गजनवी ने सन १०१७ ई० में तोड़ा और लूटा।
संवत १२०७ (सन ११५० ई०) में जब महाराज विजयपाल देव मथुरा के शासक थे, जज्ज नामक एक व्यक्ति ने, यहां एक नया मन्दिर, तीसरी बार मंदिर बनवाया।
इसके लगभग १२५ वर्ष बाद, जहांगीर के शासनकाल में ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुन्देला ने, उसी स्थान पर चौथी बार मंदिर बनवाया। इस मंदिर को, औरंगजेब ने सन् १६६९ ई० में नष्ट कर दिया और उसके एक भाग पर ईदगाह बनवा दी।
सन् १८१५ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इसे नीलाम कर दिया। जिसे बनारस के राजा पटनीमल ने खरीदा और महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय की प्रेरणा से, २१ फरवरी सन् १९५१ ई० को भगवान श्रीकृष्ण के न्यास की स्थापना की। तत्पश्चात गर्भ गृह तथा भव्य भागवत भन का पुनरूद्वार व निर्माण कार्य आरम्भ होकर, फरवरी १९८२ में पूरा हुआ।
गाय या भैंस के चमड़े को अन्दर नहीं ले जा सकते

वृन्दावन के रास्ते में, वैष्णों देवी का मन्दिर
मथुरा जाने का मुख्य उद्देश्य, बांके बिहारीजी का दर्शन करना था। बांके बिहारी जी वृन्दावन में है और हम लोग शाम को वहां पर गये। रास्ते में एक नया वैष्णो देवी का मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर और वैष्णो देवी न्यास का आपस में कोई सम्बंध नहीं है। हम इस मन्दिर को भी देखने गये।
यह एक बहुत बड़ा मंदिर है। इसमें शेर पर बैठी मां दुर्गा की एक बहुत ऊंची मूर्ति है। जो बहुत दूर से दिखायी पड़ती है। इसके अन्दर एक गुफा है जिसमें उनके नौ रूपों का वर्णन भी है। इस गुफा में जाने पर कुछ पानी बहता रहता है और उसमें कुछ इस तरह का प्रभाव दिखाया गया है जैसा कि वैष्णो देवी के मंदिर में होता होगा। मैं वैष्णों देवी के मन्दिर में नहीं गया हूं इसलिये यह दावे से नहीं कह सकता हुं।
इस मंदिर के अन्दर आप कोई चमड़े की चीज़ नही ले जा सकते है और इसीलिए मैंने अपना चश्मे का आवरण और बेल्ट उतार कर अलग कर दिया। मैंने पूछा,
‘हम सब लोग तो भी चमड़े के है तब हम कैसे अन्दर जा सकते है?
वहां पर व्यक्ति ने बताया,
‘आप गाय या भैंस के चमड़े को अन्दर नहीं ले जा सकते हैं। ज्यादातर चमड़े की चीजों में, इसी के चमड़े का प्रयोग रहता है। इसलिए आप चमड़े की चीज पहन कर या लेकर अन्दर नहीं जा सकते हैं।’
मंदिर देखने के बाद, हम लोग बांके बिहारी के मंदिर में गये। अगली बार वहीं चलेंगे।
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वैष्णौ देवी का मन्दिर – चित्र विकिपीडिया से |
बांके बिहारी से कुछ न मांग सका
बांके बिहारी का मन्दिर -चित्र विकिपीडिया से
वृन्दवन का बांके बिहारी का मंदिर, स्वामी हरि दास ने बनवाया था। वह एक कवि और संगीतज्ञ थे। वे तानसेन के गुरू भी थे। कहा जाता है कि उनका जन्म १४८० में हुआ था और मृत्यु १५७५ में।
हरिदास जी ने, वृन्दावन में अपना एक आश्रम बनवाया। वहां पर उन्हें बांके बिहारी जी एक मूर्ति भी मिली थी। यह मूर्ति इसी मंदिर में रखी हुई है। यह मंदिर बाद में,१९वीं शताब्दी के अन्त में बना।
बांके बिहारी मंदिर के मुख्य पुजारी गोस्वामी जी थे और अब उनकी भी पीढ़ियाँ बढ़ गयी हैं। जिस तरह से किसी सम्पत्ति का बंटवारा होता है उसी तरह से इस मंदिर में सेवा, पूजा, एवं अर्चना कराने का भी बंटवारा हो गया है। अलग-अलग परिवार को, अलग-अलग दिन पूजा कराने के लिए निश्चित किया गया है।
मंन्दिर में बंटवारे वा उसके प्रबन्ध करने के संबन्ध में मुकदमेंबाजी चल रही है। इसलिए न्यायालय ने इस मंदिर के लिए, रिसीवर नियुक्त किया है। लोगों का कहना था कि जब से न्यायालय ने रिसीवर नियुक्त किया है तब से स्थिति ठीक हो गयी है और उनकी जो सम्पत्ति २२ करोड़ की थी अब वह बढ़कर ४२ करोड़ हो गयी है।
मेरे सहयोगी एवं मित्रों ने कहा था आप बांके बिहारी जी आपकी सभी मनोकामना को पूरा करेगें। मैं अपने मन में उनसे कुछ मांगने के लिये सोचकर भी गया था। यह कुछ उसी तरह का था जिस कारण से मैंने वियाना के सेंट स्टीफन कैथड्रल में दो दिये जलाये थे या फतेहपुर सीकरी और गोवा में मांगा था। लेकिन यहां मालूम नहीं क्या हुआ, कुछ मांग न सका – बस उनकी मूर्ति को ही देखता रहा।
कहते हैं बाकें बिहारी अन्तरयामी है। वे मन की बात जानते होगें।
देना है तो पशु वध बन्द करवा दें

स्वामी हरिदास,राजा अकबर के सामने, तानसेन को संगीत सिखाते हुऐ चित्र विकिपीडिया से
वृन्दावन का बांके बिहारी का मंदिर, स्वामी हरि दास ने बनवाया था। कहा जाता है कि उनका जन्म १४८० में हुआ था और मृत्यु १५७५ में। वे एक संगीतज्ञ थे और तानसेन के गुरू भी।
एक बार वहां पर अकबर बादशाह आये। उन्होंने स्वामी हरिदास जी से पूछा कि वे मंदिर को क्या दे सकते है। हरिदास जी ने कहा,
‘यदि आप कुछ देना ही चाहते है तो इस जगह पर पशु वध होना बंद करवा दें।’
राजा अकबर दिल्ली पहुंचने के बाद एक तामपत्र पर यह आदेश लिखकर उनके पास भिजवाया। मेरे पूछने पर कि यह तामपत्र कहां है, उसने बताया कि,
‘भारत के प्रथम राष्ट्रपति इस ताम पत्र को दिल्ली के संग्रहालय में रखवा दिया है।’
मैंने पूछा कि क्या इस समय मथुरा में पशु वध नहीं होता है। इस पर उसका कहना था,
‘अब तो कलयुग है और इस कलयुग में, सब कुछ होता है – मथुरा में मांस भी मिलता है।’
मुझे ईसाइयों की यह बात अच्छी लगती है कि उन्होंने बहुत अधिक स्कूल एवं अस्पताल चला रखे है। हिन्दुओं ने मंदिर तो बहुत बनाये पर स्कूल और अस्पताल उतने नहीं बनवाया। गोस्वामी जी ने बताया कि जब से न्याययालय ने रिसीवर रखा है तब से मन्दिर के पास ४२ करोड़ रुपये हो गये हैं। मैनें उन्हें इसाईयों का उदाहरण देते हुए कहा,
‘जब मंदिर के पास इतना पैसा है तो स्कूल एवं अस्पताल बात क्यों नहीं चलाते। मैं चेन्नई गया था। वहां मैंने ए.आर. रहमान का शुरू किया संगीत स्कूल देखा। यह बहुत अच्छा है। क्यों नहीं इस पैसे से, स्वामी हरिदास की स्मृति में, मथुरा में संगीत का स्कूल खोलते?’
उन्हें, यह बात अच्छी लगी। उन्होंने कहा,
‘हमारे पास कुछ जमीन मथुरा में है। उस जगह पर, हरिदास जी की शैली के गायन को बढ़ावा देने के लिए स्कूल स्थापित करेगें।’
हो सकता है आने वाले दिनों में आपको मथुरा में संगीत का स्कूल मिले।
माई स्वीट लॉर्ड
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स्कॉन मन्दिर अन्दर से – चित्र विकिपीडिया से |
International Society for Krishna Consciousness (ISKCON) (स्कॉन), हरे कृष्ण आन्दोलन (Hare Krishna movement) के नाम से भी जाना है। इस आन्दोलन को, अभय चरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामीप्रभुपाद के द्वारा, १९६६ में, न्यूयॉर्क शहर में शुरू किया गया। इनके दुनिया भर में मन्दिर हैं। इनका एक मन्दिर वृन्दावन में भी है। बांके बिहारी से लौटते समय हम लोग पहले स्कॉन अन्तराष्ट्रीय मंदिर गये।
वृन्दावन के स्कॉन मन्दिर में, बहुत से विदेशी लोग थे। वहां पर वे एक भजन की धुन पर आरती कर रहे थे और उसी पर थिरक भी रहे थे। यह कुछ भजन खास है। इसके बारे में भी दो शब्द।
बीटेलस् दुनिया का सबसे प्रसिद्ध संगीत का ग्रुप रहा है। जॉर्ज हैरिसन इसके सदस्य थे। वे स्कॉन आन्दोलन से प्रभावित थे। १९७० में उन्होंने भ्गवान कृष्ण की स्तुति में एक भजन गाया था। यह मेरे विश्विद्यालय के दिनों में लोकप्रिय था। वहां पर यही भजन चल रहा था उसी पर लोग थिरक रहे थे।
इस गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं।
हरे कृष्णा
माई स्वीट लॉर्ड
हुम्म्म माई लॉर्ड
माई स्वीट लॉर्डआई रियेली वान्ट टु सी यू
रियेली वान्ट बी विथ यू
रियेली वान्ट सी यू लॉर्ड
बट इट टेक्स् सो लॉन्ग
आआपुनः पहला …
आई रियेली वान्ट टु नो यू
रियेली वान्ट टु गो विथ यू
रियेली वान्ट शो यू लॉर्ड
थैट इट वोन्ट टेक लॉन्ग, माई लॉर्डमाई स्वीट लॉर्ड – कन्हाई चित्र
पुनः पहला …
आई रियेली वान्ट टु सी यू
आई रियेली वान्ट टु सी यू
आई रियेली वान्ट टु सी यू, लॉर्ड
रियेली वान्ट टु सी यू, लॉर्ड
बट इट टेक्स् सो लॉन्ग, माई लॉर्डपुनः पहला …
आई रियेली वान्ट टु सी यू
आई रियेली वान्ट टुबी विथ यू
रियेली वान्ट सी यू लॉर्ड
बट थैट इट वोन्ट टेक लॉन्ग, माई लॉर्डपुनः पहला …
हुम्म्म, माई लॉर्ड (हरे कृष्णा)
ओह हुम्म्म, माई स्वीट लॉर्ड (कृष्णा कृष्णा)
माई, माई, माई लॉर्ड (हरे कृष्णा)
ओह हम्म, माई स्वीट लॉर्ड (कृष्णा कृष्णा)
नाओ, आई रियेली वान्ट टु नो यू (हरे रामा)
रियेली वान्ट टु गो विथ यू (हरे रामा)
रियेली वान्ट टु शो यू लॉर्ड
बट इट टेकस् सो लॉन्ग, माई लॉर्डहुम्म्म, माई लॉर्ड
माई, माई, माई लॉर्ड (हरे कृष्णा)
माई स्वीट लॉर्ड (हरे कृष्णा)
माई स्वीट लॉर्ड (कृष्णा कृष्णा)
माई लॉर्ड (हरे हरे)
हुम्म्म, हुम्म्म
गुरूर ब्रम्हा, गुरूर विष्णु, गुरूर देवो, महेश्वरा
गुरूर साक्षात, परमब्रम्हा, तस्मत श्री, गुरूर नमः
माई स्वीट लॉर्ड (हरे राम)
चित्रकला से आध्यात्म

शायद इन सवालों का जवाब हां में है और इस बात को कन्हाई चित्रकार से बेहतर और कोई नहीं समझ सकता। उन्होंने न केवल चित्रकला की नयी श्रेणी श्रेणी को जन्म दिया पर चित्रकला से आध्यात्म को भी समझा।
आपने अपना व्यवसायिक जीवन कला निदेशक के रूप में, गुरुदत्त के साथ बम्बई में शुरू किया। लेकिन बहुत शीघ्र लगा कि अपनी सृजनात्मकता भगवान कृष्ण को समर्पित करनी चाहिये। इसलिये वृन्दावन में बस गये भगवान कृष्ण की कलाओं पर चित्र बनाने लगे।
मथुरा में आपका एक संग्रहालय भी है और यह देखने लायक है। इस संग्रहालय में भगवान कृष्ण से सम्बन्धित कलाओं की बेहतरीन चित्र है। यह चित्र मन को छूते हैं। इनके ऊपर सोने ठर कीमती पत्थरों से सजावट भी है। इसलिए यह चित्र लाखों रूपयों के हैं।
आपको वर्ष २००० में भारत सरकार के द्वारा, पद्मश्री के पुरुस्कार से नवाज़ा गया।
आपके दो पुत्र कृष्ण कन्हाई, गोविन्द कन्हाई एवं पौत्र सिद्धार्थ कन्हाई भी चित्रकार हैं। इन दोनो को वर्ष १९९९ में अचीवर ऑफ मिलेनियम अवार्ड (Achiever of Millennium Award) मिल चुका है।
कृष्ण कन्हाई को २००४ में पद्मश्री पुरुस्कार से नवाज़ा गया है। बच्चन पिता-पुत्र के अतिरिक्त केवल यह पिता-पुत्र को पद्मश्री मिला है।
गोविन्द कन्हाई को २००६ यूपी रत्न से नवाज़ा गया है।
इस समय आप सबने मिल कर चित्रकारी के अन्य दिशाओं में चित्रकारी शुरू की है। हेमा मालिनी का छाया चित्र और गांव जीवन के दृश्य का चित्र उसी क्रम में हैं।
शायद भगवान कृष्ण यहीं होंगे
अक्षय पात्र संस्थान वर्ष २००० में शुरू हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य, स्कूलों में विद्यार्थियों को दोपहर का भोजन देना है। इस समय देश में, इनके ८ राज्यों में, १५ केंद्रीकृत और ३ विकेन्द्रीकृत रसोईघर चल रहे हैं। केंद्रीकृत रसोईघर में, एक जगह बड़े रसोई घर में खाना बनता है और विकेन्द्रीकृत रसोई घर में स्कूल के पास वहीं के स्थानीय लोगों की सहायता से खाना बनवाया जाता है।

अक्षय पात्र संस्थान का मथुरा में मंदिर
इस संस्थान का एक केंद्रीकृत रसोईघर और उसी के साथ कृष्ण भगवान का मन्दिर वृन्दावन में है। मथुरा में एक जगह इनका विकेंद्रीकृत रसोईघर भी है। वृन्दावन में इस जगह से, वृन्दावन और मथुरा के सारे स्कूलों में (उस जगह को छोड़ कर जहां विकेंद्रीकृत रसोईघर है), दोपहर का खाना बनाकर भेजा जाता है। हम यहां भी गये। यह जगह मुझे सबसे अच्छी लगी।
इस मंदिर में आरती तो हो रही थी लेकिन पूरी जगह खाली थी। यहां पर बिल्कुल भीड़ नहीं थी। इस मंदिर के पुजारी का नाम अंगद था। वह एक ३० वर्षीय कंप्यूटर इंजीनियर है। अंगद ने बताया,
‘रोज १,६८,००० बच्चों का खाना उनके यहां बनता है। खाना रात के २ बजे बनना शुरू होता है। खाने में दाल, चावल, रोटी और एक सब्जी रहती है।’
हम लोग इनका रसोईघर भी देखने गये। यह एकदम आधुनिक है। रोटी में घी भी, हाथ से नहीं लगाया जाता है। यह काम भी मशीन के द्वारा किया जाता है।
बच्चों को यदि अच्छा भोजन मिलता है तब स्वस्थ रहेगें और स्कूल आयेंगे। वे हमारे देश का भविष्य हैं। हमारा भविष्य सुनहरा होगा। मुझे लगा कि मथुरा में जितने भी मंदिर और पवित्र स्थान हैं, यह स्थान उन सब में सबसे पवित्र है। यदि भगवान कृष्ण हैं तब वे इसी मन्दिर में निवास करते होंगे और वही काम करते होते जो कि यह संस्था कर रही है।

मंदिर के कंप्यूटर इंजीनियर पुजारी – अंगद
मन्दिर में उन्होंने विडियो भी दिखाया जिससे से पता चला कि बहुत से बच्चों को घर में अच्छा भोजन नही मिल पाता है। उन्होंने स्कूल में इसलिए आना शुरू किया क्योंकि वहां अच्छा खाना मिलता है।
मैं भी इनके लिए कुछ करना चाहता था। मैंने सुझाव दिया कि जिन स्कूलों में भोजन बंटवाया जाता है उसमें स्कूल के जिन बच्चों की हाजिरी सबसे अधिक हो ऎसे एक लड़के एवं एक लड़की की एक साल की पढ़ायी का खर्चा उठाने की बात रखी। शायद आने वाले समय में ऎसा कुछ हो सके।
अक्षय पात्र संस्था के बारे में अन्तराजाल पर कुछ विवाद भी है। आप इसे यहां पढ़ सकते हैं। मैं नहीं कह सकता कि यह सही है अथवा नहीं।
वृन्दावन में अक्षय पात्र प्रोग्राम के बारे में विडियो
महिलायें जमीन पर लोट रही थीं
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रमण रेती पर बालू का अनन्द लेते लोग – चित्र. इस वेबसाइट के सौजन्य से |
रमण रेती अथार्त ऐसी रेत जिसके स्पर्श से आनन्द हो और रमण रेती आश्रम की रेत कुछ इसी तरह की है। इसी लिये, गोकुल-मथुरा में स्थित इस आश्रम में, कोई भी जूते, चप्पल पहन कर कोई नहीं जा सकता है। यहां नंगे पांव ही चलना पड़ता है। यहां यमुना की रेत है इसमें कोई भी कंकड नहीं है। इसी लिये यहां नंगे पाव चलने में कोई असुविधा नहीं होती और अच्छा लगता है।
वहां पर साधू एवं सन्तों के ठहरने के लिये कुटियाएं थी – अधिकतर में एयर कंडिशनर लगे थे।
प्रसाद के रूप में, खाने को खिचड़ी मिली, जो स्वादिष्ट लगी।
एक छोटे मैदान में जगह-जगह पर लोग घेरा बनाकर बैठे हुए थे और बहुत सारी महिलाएं जमीन पर लोट रही थी। यह मुझे कुछ अजीब लगा। वहां के पुजारी ने बताया,
‘लोगों का विचार है कि भगवान कृष्ण बचपन में यही पर घूमा करते थे और उनके पैर इसी बालू पर पड़े होगें। इसीलिए लोग यहां आकर लोटते हैं ताकि इस पवित्र मिट्टी से वे भी पवित्र हो सकें।’
सच है कि हम वही हवा, वही मिट्ठी, वही पानी प्रयोग कर रहे हैं जो अरबों साल से है। प्रकृति मां, हमें इनका पुनः प्रयोग करने देती है।
पृथ्वी, हमारे पास, वंशजों की धरोहर है। हमें इसका इस प्रकार से उपयोग करना है कि हमारी आने वाली पीढ़ी भी उसी तरह इसका प्रयोग कर सके जैसे हम कर रहें हैं। यदि हम दुरुपयोग करेंगे या फिर दिन दूने, रात चौगने बढ़ते जायेंगे तो हो सकता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी इसका उपयोग न कर सके। हमें इसके लिये सावधानी बरतनी है।
हमारे यहां भरतपुर से अधिक पक्षी आते हैं
मथुरा में एक इंडियन आयल रिफ़ाइनरी भी है। हम लोग उसे भी देखने के लिए गये। यह भारत का आधुनिक मंदिर है। यहां पर क्रूड आयल, पेट्रोल, डीज़ल, एएफटी और सलफर बनाया जाता है। एएफटी एक खास तरह का पेट्रोल है जिसमें सल्फर बहुत कम होता है। इसके कारण प्रदूषण नहीं होता है।
इन्हें क्रूड आयल से, बनाने के लिए, उसे गर्म किया जाता है जिसके कारण, अलग अलग घनत्व की चीजें अलग अलग जगह पर निकल आती हैं।
मथुरा रिफ़ाइनरी में, पानी का प्रयोग होता है और उस पानी को वापस करते समय साफ किया जाता है। इसके लिए उनकी रिफायनरी के अन्दर कुछ तालाब हैं जहां पानी साफ किया जाता है।
इन तलाबों में हमेशा पानी रहता है और बहुत से पेड़ हैं। इस कारण यहां पर बहुत से पक्षी भी रहते हैं यह उनकी पक्षीशाला भी है।
वहां के कर्मचारियों के मुताबिक, ठंड के महीने में वहां पर इतनी अधिक पक्षी आ जाते हैं कि कोई भी पेड़ दिखायी नहीं देता और केवल पक्षी ही पक्षी दिखायी देती है। वहां पर, उनके घोसले बने थे जिनमें उनके छोटे-छोटे बच्चे भी थे।
रिफायनरी ने, बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी से प्रार्थना की थी वे रिफ़ाइनरी के तालाब में आकर पक्षियों की गणना करें।
सोसायटी ने यह कार्य वर्ष १९९५ से ९७ तक किया और वहां पर, करीब १०० तरह की पक्षियों को पाया। इस सम्बंध में उन्होंने एक पुस्तक भी प्रकाशित की है जिसमें वहां पर पायी जाने वाली पक्षियों के बारे में चर्चा है।
भारतीय़ अध्यात्मिकता की नयी शुरुवात – गोवर्धन कथा
पुराने समय इन्द्र देव की पूजा होती थी। इस पर कृष्ण भगवान ने आपत्ति की। उनका कहना था कि सबको अपना कर्म करना चाहिये और प्राकृतिक घटनाओं के लिये कोई पूजा या बलि नहीं करनी चाहिये। वृन्दावन-वसियों ने भगवान कृष्ण की बात से सहमत होकर, इन्द्र की पूजा नहीं की। इस पर इन्द्र देव कुपित हो गये तथा तूफान और वर्षा करने लगे। तब कृष्ण भगवान ने इस पर्वत को छोटी उंगली पर उठा कर, वृन्दावन-वासियों की रक्षा की।
यह घटना, भारतीय धार्मिकता में, नयी शुरुवात का द्योतक है – यज्ञ, बलि एवं तुष्टीकरण के स्तर से, कर्म के आध्यात्मिक स्तर पर जाने की। यहां से भारतीय दर्शन में कर्म का
महत्व शुरू हुआ। इस दर्शन को, भगवान कृष्ण ने गीता में विस्तार से समझाया है।
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गोवर्धन परिक्रमा में कुसुम सरोवर |
इसी के साथ मथुरा यात्रा समाप्त होती है बहुत जल्दी हम लोग कुमायूं की यात्रा पर चलेंगे।
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